बालक ‘शुद्र’ से ‘द्विज’ कैसे बना ?

बालक ‘शुद्र’ से ‘द्विज’
कैसे बना ?
         सद्भावी सत्यान्वेषी बन्धुओं ! उपनयन संस्कार बालक के दूसरे जन्म की एक साँस्कारिक (संस्कृति प्रधान) पद्धति है, जिसमें साँस्कृतिक विधानों से बालक का शुद्र से समाप्त कराकर पुनः दूसरा साँस्कारिक जन्म कराया जाता है । प्रायः सभी ब्राह्मणों को ही यह बात मालूम होती है कि उपनयन संस्कार के पूर्व वह बालक शुद्रवत् होता है तथा उपनयन संस्कार के बाद वही बालक ‘द्विज’ बन या हो जाता है । उपनयन संस्कार बालक के दूसरे जन्म की एक सांस्कृतिक पद्धति (साँस्कारिक विधान) है । आइए पाठक बन्धुओं अब ‘शुद्र से द्विज कैसे ?’ पर गहनता पूर्वक पठन-पाठन, मनन-चिन्तन करते हुए यथार्थ स्थिति जानी समझी जाय ।
       सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक बन्धुओं । ब्रह्मांश ही सर्व प्रथम तो प्रभु के प्रेरणा से तत्पश्चात् अपने प्रारब्ध कर्मों के अनुसार अन्य योनियों से भुगतते हुये पुण्य पुन्जों के एकत्रित होने तथा परमप्रभु की अहेतुकी कृपा के कारण ब्रह्मांश जीव रूप में पिता के अन्तर्गत इच्छा रूप में प्रविष्ट होकर शुक्र का रूप लेता हुआ वीर्य के सहारे माता के गर्भ में प्रवेश पाता है, जहाँ पर विकास के सिद्धान्त से वह शरीर का रूप धारण करता है । तत्पश्चात् जीव की चेतनता एवं क्रियाशीलता हेतु पुनः गर्भस्थ शिशु के अन्तर्गत रहने वाले जीव से ब्रह्मनाल (नार-पुरइन) के माध्यम से सम्पर्क कायम रखते हुये गर्भस्थ शिशु की रक्षा-व्यवस्था (लालन-पालन) करता   है । प्रारब्ध कर्म के अनुसार गर्भस्थ शिशु गर्भ से बाहर आता है । यहाँ पर एक बात जान लेने की विशेष आवश्यकता महसूस हो रही है । हो सकता है कि यह बात पीछे कही जा चुकी हो परन्तु फिर भी यहाँ पर आवश्यकतानुसार संक्षिप्ततः कही जा रही है, शिशु जब तक गर्भ में रहता है, तब तक उसकी शरीरिक दोनों आँखें बन्द रहती है और अन्दर ही अन्दर दृष्टि ऊध्र्वमुखी रूप में आज्ञा-चक्र स्थित दिव्य दृष्टि से युक्त रहते हुये सदा ही अपने असल अविनाशी दिव्य पिता-माता रूप ब्रह्म-शक्ति रूप दिव्य ज्योति का साक्षात्कार करता रहता है । इसके साथ ही शिशु की जिह्वा भी मुख में न रह कर ऊध्र्वमुखी रूप में ही जिह्वा मूल से ही ऊपर कण्ठ कूप में ब्रह्म-शक्ति के तरफ से झरते हुये अमृत का पान करती रहती है जिससे कि गर्भस्त शिशु को अन्न-जल की आवश्यकता नहीं पड़ती है क्योंकि ‘अमृत का पान करता रहता है जिससे कि गर्भस्थ शिशु को अन्न-जल की आवश्यकता नहीं पड़ती है क्योंकि ‘अमृत पान’ से क्षुधा-तृष्णा (भूख-प्यास) दोनों ही समाप्त रहती है जहाँ तक कमजोरी की बात है, तो जिसका सीधा सम्बन्ध ब्रह्म-शक्ति से ही हो, उसके कमजोरी-मजबूती की बात ही अपनी मूर्खता है । पुनः इसके साथ ही गर्भस्थ शिशु के कान भी ‘जावड़’ से बन्द रहते हैं और शिशुस्थ जीव ब्रह्म-शक्ति के यहाँ हो रहे दिव्य ध्वनियों को सदा ही सुनता रहता है जिसमें आनन्द विभोर रहता था । पुनः उपरोक्त तीनों बातों के साथ ही चैथी और महत्त्व की दृष्टि में सबसे पहली बात भी है कि गर्भस्थ शिशु का जीव ब्रह्म-शक्ति से सदा ही (अनवरत) दरश-परश यानी मेल-मिलाप में ही रहता था, जिससे कि उसकी अखण्ड वृत्ति जीव-आत्मा (ब्रह्म) के मेल-मिलाप की बनी रहती थी, जिसको सूत्रवत् सोऽहँ-
हँ्सो वृत्ति से जाना जाता है ।
      सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक बन्धुओं ! गर्भस्थ शिशु गर्भ में ब्रह्मनाल (नार-पुरइन) के माध्यम से ब्रह्म-शक्ति से युक्त होने के कारण पूर्वाेक्त चारों विधानों से युक्त था और पैदा होते समय तक भी ब्रह्ममय वृत्ति में ही था और तब तक रहता है जब तक कि शिशु का ब्रह्मनाल (नार-पुरइन) काटकर-कटवाकर नाल रहित नहीं कर-करा दिया जाता है । अब यहाँ पर बात थोड़ा विशेष सूझ-बूझ की है कि प्रसव पीड़ा जब स्त्री को होने लगती है तो उसको सन्तोष, मन-बहलाव तथा सेवा हेतु कुछ (दो-चार-पांच) अन्य स्त्रियां घर-पड़ोस की भी रहती हैं परन्तु आश्चर्य की बात यह देखें कि प्रसूति-गृह (सऊरि घर) तब तक अपवित्र या अछूत नहीं रहता है, जब तक कि चमईन (प्रसूति सेविका) आ नहीं जाती हो । भले ही शिशु को पैदा हुये आधा-एक घण्टा ही क्यों न बीत गया हो । यहाँ पर एक आश्चर्य की बात यह भी होती है कि घर-पड़ोस की कोई औरतें नार-पुरइन नहीं काटती हैं, बल्कि नार-पुरईन (ब्रह्मनाल) काटने हेतु समाज के सबसे निम्न स्तर की स्त्री यानी चमईन को ही बुलाया जाता है ! आखिर क्यों ? घर-पड़ोसन के ही अच्छे ऊँचे श्रेणी के औरतों से ही क्यों नहीं कटवाया जाता है ? यदि पूछा जाय तो प्रायः ठीक-ठीक उत्तर मिलना कठिन हो जायेगा, क्योंकि इसका जवाब अति भयानक हो, यदि चमईन भी असलियत जान-समझ जाय तो शायद वह भी नार-पुरइन को काटने वाला कार्य बन्द कर सकती है । इसीलिये ऋषि-महर्षियों ने जिन्होंने यह विधान लागू किया-कराया, अति गोपनीयता बरता । इस प्रकार गोपनीयता बर्तते-बर्तते समाज में यह जानकारी लुप्त प्रायः ही हो गयी । यहाँ पर इस विषय को संक्षिप्त में ही कहा जा रहा है क्योंकि इसी पर एक विस्तृत अध्याय है । नार-पुरइन (ब्रह्म- नाल) को काटने का अर्थ है शिशुस्थ जीव के ब्रह्ममय सम्बन्ध को काटना । अब थोड़ा सोचें कि यह कार्य कि शिशुस्थ ब्रह्ममय जीव का ब्रह्म से सम्बन्ध काटकर शरीरमय बनाना, तो वैसा ही तुच्छ कार्य है जैसा कि किसी राजा के बालक को भिखारी फँसाकर उसका राजा से सम्बन्ध हटाकर अपने साथ जोड़ कर उस बालक से भीख मँगवाकर अपना जीवन वसर करता हो । बल्कि इससे भी घृणित कार्य है, नार पुरईन काटना, क्योंकि इस राजा के बालक का एक ही जन्म खराब होता है परन्तु उस जीव का तो लाखों-करोड़ों जन्म ही फँस-फँसा कर चैपट कर-करा दिया जाता है। इस प्रकार ब्रह्म से सम्बन्ध विच्छेद करना-कराना एक घोर घृणित कार्य ही है। इसीलिये समाज के निम्नतम श्रेणी की औरत जिसे कुछ भी मालूम नहीं, उसी चमईन से कटवाया जाता है जिसका कुप्रभाव भी सभी लोगों को जाने-अनजाने में भुगतना ही पड़ता है। वह क्या कि जब नार-पुरईन काटा जाता है तो उस पाप कर्म से सभी ही अछूत हो जाते हैं जिस शिशु का कटता है वह भी अछूत, जो काटती है, वह भी अछूत, शिशु की माँ भी अछूत, वह कोठरी यानी प्रसूति-गृह भी अछूत, काटने वाली औरत यानी चमईन जिस रास्ते से गुजरती है, वह रास्ता भी अछूत,  एक तो निम्न परिवार की रहती है, फिर उसके परिवार वाले भी उसे अछूत ही मानते हैं। मजबूरी नहीं हो, तो सात-दिन क्या जिन्दगी भर ही लोग अछूत रहते । यहाँ पारिवारिक, सामाजिक व्यवस्था ही छिन्न-भिन्न हो जाती । इसी बात के चलते नाना उपक्रम करके अछूत को प्रायः एक सप्ताह के बाद अछूतपन मिटा दिया जाता है फिर भी बालक उपनयन संस्कार तक शुद्रवत् ही व्यवहरित होता है ।
          सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक बन्धुओं ! गर्भस्थ शिशु जिन चार विधानों से युक्त जिसके कि नार-पुरईन (ब्रह्मनाल) कटवाकर क्रमशः चारों विधानों से विछुड़ाकर नकली चार विधानों--दिव्य ज्योति के स्थान पर दीप-ज्योति, अमृतपान के स्थान पर मधुपान, अनहद नाद (दिव्य ध्वनियों) के स्थान पर फूल की थाली की ध्वनियाँ तथा सोऽहँ-
हँ्सो के नाम पर सोहर व शारीरिक माता-पिता आदि के नाम-रूपों को जना-सुना-दिखा-करा कर असल से भटकाकर नकल में फँसाकर जकड़ दिया जाता है । अविनाशी दिव्य पिता-माता रूप ब्रह्म-शक्ति से विछुड़ा एवं भटकाकर विनाशशील शारीरिक माता-पिता, भाई-बहन आदि शरीरों में फँसा दिया जाता है । ऋषि-आश्रमों की व्यवस्था जब तक थी  तब तक तो उपनयन संस्कार सही रूप में होता था । सही उपनयन संस्कार के अन्तर्गत ऋषि-आचार्य गुरु होते थे, जो ब्रह्म ज्ञान आत्मज्ञानी होते थे और वे उन्हीं चारों विधानों को पुनः प्रारम्भ कर करा देते थे । योग-साधना अथवा अध्यात्म-साधना से पुनः बालक के अन्तर्गत जीव को पुनः ऊध्र्वमुखी दृष्टि के माध्यम से ध्यान में दिव्य ज्योति का साक्षात्कार कराते हुये, अमृतपान, अनहद नाद तथा अखण्ड वृत्ति रूप सोऽहँ-हँ्सो का अजपा जप आदि कराकर शुद्रवत् शरीरमय बालक के पुनः शरीरमय रूप (भाव) को समाप्त कराते हुये जीवात्मा रूप में पहुँचा कर आत्मा (ब्रह्म) से ध्यान के द्वारा व अजपा-जप से पुनः साक्षात्कार कराते हुये मेल-मिलाप (जीव का आत्मा से) करा कर आत्मामय रूप दूसरा जन्म यानी द्विज बना देेते हैं। तब उस ब्रह्ममय ‘द्विज’ बालक को ब्रह्मचारी का भेष देकर वेद-शास्त्रों के अध्ययन मनन-चिन्तन करते हुये विप्र, योग-साधना अथवा अध्यात्म के भरपूर अनुभूतिपरक जानकारी देने के पश्चात् विप्र से ब्राह्मण यानी अध्यात्मवेत्ता अथवा ब्रह्मवेत्ता स्तर (श्रेणी) तक पहुँचाकर समाज कल्याण हेतु समाज में स्वच्छ विचरण हेतु भेज देते थे तथा वे गुरुआज्ञा को सहर्ष पूरा करते थे । उन ऋषि-आचार्य गुरु द्वारा उपनयन संस्कार में भिक्षाटन के समय ब्रह्मचारी को जो अनुभूति हुई थी, वह अवश्य ही पठनीय एवं सूझ-बूझ के साथ विचारणीय बात है । हम तो आप पाठक बन्धुओं से यहाँ पर साग्रह निवेदन करेंगे, यहाँ पर रुककर एक बार फिर उपनयन संस्कार वाले पहले शीर्षक को पढ़कर तब आगे बढ़ेंगे तो बड़ा ही अच्छा होगा क्योंकि ब्रह्मचारी की भिक्षाटन के समय की अनुभूति हम बार-बार दोहरा रहे हैं कि कल्याणप्रद है । उसमें देखना है कि ब्रह्मचारी का भाव शारीरिक माता-पिता आदि पर कैसा हो जा रहा है तथा गुरुदेव के प्रति कैसा भाव हो जा रहा है । एक बार और उसे अवश्य देखें।
        सद्भावी बन्धुओं ! आजकल उपनयन संस्कार एक संस्कार न रहकर मात्र परम्परागत विधानों एवं परम्पराओं का पालन भर हो रहा है क्यांेकि उपनयन संस्कार को कराने वाला आचार्य खुद ब्रह्म ज्ञानी तो नहीं है बल्कि वैसा शरीरमय वह भी है । फिर भी उपनयन संस्कार चूँकि ब्रह्म ज्ञान देने-लेने यानी ब्रह्म से सम्बन्ध स्थापित करने-कराने वाली पद्धति में इतना तो है ही कि सम्बन्ध कटवाया जाता है चमईन से तथा झूठा ही सही परन्तु जोड़ने हेतु आचार्य गुरु-पंडित बुलाया जाता है दोनों के अन्तर को सोंचे-समझें तो समझ में आ जायेगा कि काटने पर क्या महत्त्व मिलता है और झूठे रूप में भी जोड़ने को क्या महत्त्व दिया जाता है ।
  ब्रह्मचारियों हेतु उत्तम निर्देश
     
      सद्भावी ब्रह्मचारियों ! आप बन्धुओं से निवेदन पूर्वक यह बताना चाहूँगा कि आप को भी अभी बहुत सावधानी बर्तने की बात है। आप को यह कदापि नहीं सोचना चाहिये कि ‘मैं’ जो कुछ पा गया हूँ या जो कुछ द्विज या ब्रह्मचारी बन गया हूँ यही अन्तिम जानकारी तथा अन्तिम पद है। ब्रह्मचारियों को ब्रह्ममय वृत्ति और आचरण में रहते हुये अभी परमब्रह्म की प्राप्ति और मुक्ति-अमरता के बोध को प्राप्त करना अभी आप को भी बाकी यानी शेष है। यहाँ पर यह बताने की विशेष आवश्यकता महसूस हुई है क्योंकि प्रायः देखा जाता है कि ब्रह्ममय वृत्ति या आत्मामय वृत्ति या ईश्वरमय वृत्ति वालों को एक जबरदस्त भ्रम एवं अहंकार वृत्ति उनके अन्दर कार्य करना शुरु कर देता है जिससे हमेशा ही सावधान रहना चाहिये क्योंकि इस जबरदस्त भ्रम एवं अहंकार से बचे वगैर तथा ब्रह्ममय से भी आगे बढ़कर परमब्रह्ममय या ईश्वरमय से भी आगे बढ़कर परमेश्वरमय या आत्मामय से आगे बढ़कर परमात्मामय हुए वगैर न तो आप को यथार्थतः मुक्ति का ही बोध प्राप्त हो सकता है और न तो अमरता का ही, जबकि जीव की अन्तिम गति मुक्ति और अमरता का बोध ही होता है । आइये, अब आप बन्धुओं को उस जबरदस्त भ्रम एवं अहंकार का पर्दाफास करते हुये समझा-बुझा दूँ ताकि उससे बचने हेतु आप पहले से ही आगाह रहेंगे ताकि आप पर उसका कुप्रभाव नहीं होने पाये ।
       वह जबरदस्त भ्रम एवं अहंकार है ब्रह्म को ही परमब्रह्म अथवा ईश्वर को ही परमेश्वर अथवा आत्मा को ही परमात्मा अथवा हंस को ही परमहंस अथवा नूर को ही अल्लाहतआला अथवा सोल को ही गाॅड अथवा ब्रह्मानन्द को ही परमानन्द अथवा चिदानन्द को ही सच्चिदानन्द अथवा सोऽहँ-
हँ्सो को अखण्ड वृत्ति (अजपा जप) व दिव्य ज्योति दर्शन को चारों (अजपा जप, ध्यान, अनहद, और खेंचरी) आदि को साधनात्मक योग-साधना को ही परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगतत्तत्त्वम् से सम्बन्धित तत्त्वज्ञान या भगवद् ज्ञान या सत्य ज्ञान पद्धति अथवा ज्योति दर्शन व जीवात्मा (ह ँ्सो) के अनुभूति को ही मुक्ति और अमरता का बोध मान लेना ही वह जबरदस्त भ्रम एवं अहंकार है जो आत्मा में ही भटकाकर परमात्मा से या ब्रह्म में ही लटकाकर परमब्रह्म से या ईश्वर में ही लटकाकर परमेश्वर से या योग-साधना रूप अध्यात्म में ही लटकाकर भगवद् ज्ञान रूप तत्त्वज्ञान पद्धति से बंचित कर करा देता है । पुनः योगी या आध्यात्मिक गुरु को ही तात्त्विक सद्गुरु तथा योगी या आध्यात्मिक महापुरुष को तात्त्विक या तत्त्वज्ञानदाता परमपुरुष रूप अवतारी, आत्मानुभूति को ही अद्वैत्तत्त्व बोध या ज्योति दर्शन मात्र को ही मुक्ति और अमरता कदापि नहीं मानना चाहिये । ये दोनों ही पृथक्-पृथक् दो बातें हैं । अतः गौर करके आगे बढ़ने का यत्न (कोशिश) करें । भगवान् आप को सद्बुद्धि दें । हम तो परमप्रभु की कृपा से आप को ये निर्देश दे रहे हैं । शेष आप जानें और आपका कार्य जानें । शेष सब भगवद् कृपा 
       तत्त्वज्ञान ‘विद्यातत्त्वम्’ का ही पर्याय है । तत्त्वज्ञान या विद्यातत्त्वम् न तो कर्मकाण्ड ही होता है और न योग-साधना वाला अध्यात्म ही । बल्कि  दोनों का ही उत्पत्तिकत्र्ता, संचालनकत्र्ता तथा विलय रूप नियन्त्रण-कत्र्ता के साथ ही साथ सभी के कमियों का पूरक होता है, चाहे वह किसी भी  प्रकार की कमी क्यों न हो । यथार्थ बात यह है कि विद्यातत्त्वम् या तत्त्वज्ञान किसी का भी विरोधी नहीं होता है, बल्कि सबका सहयोगी रूप संरक्षक और बिना किसी प्रतिकार के ही पूरक होता  है । फिर भी आश्चर्य की बात तो यह है कि सभी ही अपना शोषक समझते हैं । कर्मकाण्डी कहते हैं कि यह आध्यात्मिक है और आध्यात्मिक कहते हैं कि यह कर्मकाण्डी है । परन्तु जो भी सम्पर्क में आता है सर्वोच्चता, सर्वश्रेष्ठता एवं सर्वोत्तमता को स्वीकार करते हैं । जब कोई व्यक्ति किसी तत्त्वज्ञानी या तत्त्वज्ञानी के इशारे पर तत्त्वज्ञानदाता के पास आता है तो चाहिये यह कि वह किसलिये आता है, जिस लिये आता है वह इनके (तत्त्वज्ञान दाता) के पास है कि नहीं ? तो यह देखते हुए भी कि उसके जिज्ञासा वाली बात श्रेष्ठतम् एवं सर्वोत्तम रूप में है फिर भी वह अपने प्रतिकूल वाली बात भी देखने लगता है । जिससे वह भ्रमित होकर भटक जाता है। जबकि उसे मात्र अपनी जिज्ञासा वाली बात मात्र से मतलब रखना चाहिये अन्य की नहीं । क्योंकि तत्त्वज्ञान या विद्यातत्त्वम् कोई व्यक्ति या वस्तु या शरीर और सम्पत्ति सम्बन्धी बात तो है नहीं और न तो जीवात्मा वाला योग- साधना वाला अध्यात्म की ही बात है । अपितु यह तो परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्द रूप भगवत्तत्त्वम् रूप परमब्रह्म या परमात्मा-खुदा-गाॅड की एकमात्र यथार्थ जानकारी, दर्शन तथा बात-चीत करते हुए पहचान करने-कराने वाला तत्त्वज्ञान पद्धति है । जिसके  अन्तर्गत संसार, शरीर, जीव, जीवात्मा, आत्मा आदि की भी यथार्थ उत्पत्ति, संचालन तथा विलय से सम्बन्धित सम्पूर्ण जानकारी सैद्धान्तिक, प्रायौगिक तथा व्यावहारिक रूप से भी अनायास ही मिल जाती है। चूँकि  यह साँसारिक और आध्यात्मिक का विधान या पद्धति तो होता नहीं कि एकांगी रहे ताकि जो आवे मात्र वही या उसकी ही बात दिखलायी दे । यह तो अवतारी वाला पूर्ण या पूर्णांग-विधान या पद्धति है जिसमें सृष्टि की सारी बातें एवं क्रियाएँ भी दिखायी देना ही वास्तविक सत्यता या यथार्थतः परमसत्य की पहचान कराने वाला होता है । इस प्रकार अवतारी वाली पद्धति जो विद्यातत्त्वम् या तत्त्वज्ञान पद्धति है इसलिये इसमें क्या-क्या है ? क्या दोष है और क्या गुण है ? ये सब कुछ भी इस पद्धति में देखी जाती है । इसमें मात्र परमप्रभु या परमात्मा की भक्ति-सेवा किससे और कैसे हो जिससे परमात्मा प्रसन्न रहें और अपनी भक्ति-सेवा बनायें रखें, मात्र यही प्रधानता देखने योग्य होता है  क्योंकि परमात्मा की भक्ति-सेवा का पद सृष्टि का सर्वोच्च, सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वोत्तम होता है। इसलिये सर्वतोभावेन परमात्मा वाली अवतारी सत्पुरुष शरीर को आनन्दित एवं प्रसन्नचित्त रखना ही अपना उच्चतम् कत्र्तव्य है । सिद्धान्त भी यही है कि जितना ही ऊँचा पद होता है उस पद पर टिकना या कायम रहना भी उतना ही खतरनाक उत्तरदायी होता है । चूँकि यह परमात्मा का ही विधान या पद्धति है इसलिये सर्वोच्च, सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वोत्तम होता है । यही यथार्थतः परमसत्य है ।

‘परमात्मा’ के प्रति पूर्ण समर्पण-भाव
ही अंशवत् ‘आत्मा’ के प्रति  प्रत्याहार

        सद्भावी बन्धुओं ! प्रत्याहार अष्टांग योग का पांचवाँ अंग है और जीव का आत्मा से मिलन ही योग है । इससे यह स्पष्ट होता है कि आत्मा से मिलन में जीव को पड़ने वाले बाधाओं या फँसानों को दूर करने के लिये विषयों से इन्द्रियों का निग्रह ही प्रत्याहार है । अर्थात् इन्द्रियों को अपने विषयाभिमुखी वृत्तियों से खींचकर और रोककर धारणा में लगाना तथा आत्मा का ध्यान करना या ध्यान में आत्म-ज्योति का साक्षात्कार करना ही योग-साधना है । यह प्रत्याहार योगी-यति, ऋषि-महर्षि तथा योग-साधना वाले आध्यात्मिक सन्त-महात्मा लोग आजीवन इन्द्रियों को अपने विषयाभिमुखी वृत्तियों से मोड़कर आत्म-साक्षात्कार की साधना में लगाते रहते हैं, फिर भी बहुत कम ही सफल भी हो पाते हैं । जबकि ज्ञान में कोई साधना नहीं करनी पड़ती है और न इन्द्रियों को ही अपने वृत्तियों से मोड़ना पड़ता है। बल्कि इन्द्रियों को परमात्मा के सेवार्थ और ही मजबूती तथा प्रभावी रूप में परमात्मा के आनन्द और प्रसन्नता हेतु परमात्मा के ही सेवा में श्रद्धापूर्वक लगाना तथा इसमें अपने को सौभाग्यशाली समझना कि हमारी इन्द्रियाँ एवं शरीर परमात्मा की सेवार्थ उपयोग में आ रही है । परमार्थ या परमात्मा के लिये प्रयोग में पूर्ण समर्पण भाव में आने वाली इन्द्रियों तथा उनके विषय में प्रयोग होने पर  किसी भी प्रकार का दोष की कल्पना भी नहीं किया जा सकता है । बल्कि यह तो परम सौभाग्य की बात है कि परमात्मा के उपयोग में हमारी इन्द्रियाँ और शरीर आये या लगे, इससे बढ़कर और सौभाग्य हो ही क्या सकता है अर्थात् कुछ नहीं । अतः प्रत्याहार में इन्द्रियों को वाह्य विषयों से खींचकर आत्मा के दरश-परश हेतु अन्तःवृत्ति में लगाया जाता है । जबकि पूर्ण समर्पण में परमात्मा में ही अपनी इन्द्रियों तथा शरीर को परिवार और संसार से खींचकर या रोककर एकमात्र परमात्मा की  भक्ति-सेवा में लगाना ही पूर्ण जिज्ञासु एवं श्रद्धालु भाव से पूर्ण समर्पण रूप में परमात्मा के आश्रय और शरण में रहना ही जीवन का चरम और परम लक्ष्य के साथ ही चरम और परम सौभाग्य समझना चाहिये । उदाहरणार्थ गोपियाँ परमात्मा के प्यार हेतु तथा सेवार्थ अपने परिवार तथा संसार को छोड़कर भी इन्द्रियों तथा शरीर को पूर्ण समर्पण भाव श्री कृष्ण जी में लगा दीं । तो वर्तमान में तो बदनाम अवश्य हुईं  परन्तु आज वही मंगल गान में भी पाई जाती हैं और कृष्ण के पूर्व ही इन लोगों का नाम भी लिया जाता है कि राधे श्याम, गोपी कृष्ण आदि कह-कह कर लोग भक्ति-गान गाते हुए आनन्दित होते हैं ।