सदा स्मरण रखने योग्य क्रम की उपयुक्त बातें

सदा स्मरण रखने योग्य क्रम की उपयुक्त बातें
        सद्भावी सत्यान्वेषी गृहस्थ बन्धुओं ! संसार का महत्त्व शरीर रहने  तक ही है, शरीर से पृथक् संसार का कोई महत्त्व नहीं; पुनः जीव का महत्व आत्म से सम्बन्ध पर ही है। आत्मा से पृथक् जीव का कोई महत्व नहीं है; तथा अन्ततः आत्मा का महत्व परमात्मा से सम्बन्ध पर ही है, परमात्मा से पृथक् आत्मा का भी कोई महत्त्व नहीं होता है । यह सदा स्मरणीय बात है ।
          पुनः एक दूसरा क्रम:- शरीर को संसार के पीछे नहीं ले जाना चाहिए अर्थात् शरीर को संसार के तरफ नहीं देखना व जाना चाहिए बल्कि संसार को ही शरीर के पीछे चलना चाहिए यानी ऐसा करना चाहिए कि संसार शरीर की ओर देखे और चले । शरीर संसार को मात्र इतना ही भर के लिए देखे और चले ताकि संसार शरीर के पीछे देखने चलने लगे, पुनः जीव को शरीर के तरफ नहीं देखना चाहिए तथा शरीर के अनुकूल भी नहीं होना चाहिए, बल्कि शरीर को ही जीव की ओर देखना तथा जीव के अनुकूल होना चलना चाहिए । हाँ, जीव शरीर के तरफ मात्र उतना ही देखे तथा शरीर के अनुकूल मात्र उतना ही होवे-चले जिससे कि शरीर जीव के तरफ तथा जीव के अनुकूल आसानी पूर्वक रह और चल सके । पुनः आत्मा को जीव के तरफ नहीं देखना तथा जीव के अनुसार नहीं होना-चलना चाहिए बल्कि जीव को ही आत्मा की ओर तथा आत्मा के अनुसार देखना-होना तथा चलना चाहिए। हाँ आत्मा जीव के तरफ मात्र उतना ही देखे-चले जितना कि जीव आसानी से आत्मा के तरफ देखने-रहने व चलने लगे तथा अन्ततः परमात्मा आत्मा के तरफ नहीं देखता तथा आत्मा के अनुसार नहीं चलता है, बल्कि आत्मा को परमात्मा के तरफ ही देखना तथा परमात्मा के अनुसार ही रहना-चलना चाहिए । हाँ परमात्मा भी आत्मा के तरफ देखता तथा आत्मा के अनुसार रहता-चलता है परन्तु मात्र उतना ही भर देखता-रहता-चलता भी है, जितना से कि आत्मा आसानी से परमात्मा की ओर ही देखने-रहने तथा चलने लगे । यदि सृष्टि में यह क्रम ही लागू हो जाय तो सारी कमी, सारी गड़बड़ी, सारी परेशानी सुगमता पूर्वक बिल्कुल आसानी से ही ठीक हो जाय ।
          बन्धुओं ! आप लोग सोच रहे होंगे कि क्या विषय शुरू हुआ और क्या हो रहा है, तो हम तो यही कहेंगे कि विषय नहीं हल या समाधान हो रहा है, आप चूँकि संकुचित दायरे में हैं इसीलिए संकुचित दृष्टि हेतु यह बाहर की बात है परन्तु दृष्टि की विस्तृत एवं दूरदर्शिता के साथ जैसे ही देखना प्रारम्भ करेंगे तो दिखायी देगा कि ठीक है । शरीर की उत्पत्ति, विकास तथा रक्षा-व्यवस्था मुख्यतः संसार से नहीं, बल्कि जीव से तथा जीव तक ही है । पुनः जीव की चेतना व शक्तिमत्ता मुख्यतः शरीर से नहीं बल्कि आत्मा से मिलता रहता है । पुनः आत्मा को चेतनता, शक्तिमत्ता, शान्तत्त्व तथा आनन्द मुख्यतः जीव से नहीं मिलता है बल्कि परमात्मा से ही मिलता रहता है । अब यहाँ पर सूझ-बूझ से देखें कि - साँसारिकता का विधान भी यही कहता व मानता है कि जिससे जिसकी उत्पत्ति, रक्षा-व्यवस्था, विकास, शान्तत्त्व, चेतनता, शक्तिमत्ता, आनन्द आदि मिलता हो, तो पाने वाले को चाहिए कि देने वाले के अनुसार ही रहे-चले तथा उसका एहसान-शुक्र गुजार माने ।