उपनयन संस्कार

उपनयन संस्कार

      सद्भावी सत्यान्वेषी बन्धुओं ! उपनयन संस्कार संस्कृति प्रधान वह पद्धति है जिसके अन्तर्गत बालक को ‘उप’ यानी समीप ‘नयन’ यानी दृष्टि या आँख या चक्षु ‘संस्कार’ बताये या खोलने वाली संस्कृति प्रधान पद्धति अर्थात् संस्कृति प्रधान ऐसी पद्धति जिसमें बालक को दो नयनों के मध्य ऊपरी हिस्से यानी भूमध्य स्थित तीसरी दृष्टि खोल कर जो प्रसूति गृह में प्रायः बन्द करा दिया गया था, ध्यान की जानकारी गुरु जी द्वारा कराकर ब्रह्म साक्षात्कार कराया जाता है । तत्पश्चात् उस बालक को ब्रह्ममय आचरण का उपदेश देकर ब्रह्मचारी का वेष दिया जाता है । पुनः साँसारिकता से विरक्ति का उपदेश देकर साँसारिक सुख के सामग्रियों के त्याग का पाठ पढ़ाया जाता है । पुनः सर्व प्रथम माता जी तथा सगा-सम्बन्धियों हित-नात, घर-परिवार तथा गाँव क्षेत्र के अपने नजदीकी या समीपी या मेल-मिलापी लोगों से भीक्षाटन करवाया जाता था कि अब मेरा सम्बन्ध अपनत्त्व वाला समाप्त होता है । अब आप लोग भी वैसे ही हैं, जैसे देश-काल के अन्य लोग। इसीलिये आप लोगों से भी भीक्षाटन करके अर्थात् भीख माँगकर दिखला रहा हूँ कि अब मैं वत्कल व दण्डधारी ब्रह्मचारी हो गया हूँ । मेरे लिये अब गुरुदेव ही सब कुछ हैं । मैं उनके लिये भीक्षाटन करके लाऊँगा । गुरुदेव की ही भक्ति-सेवा करूँगा तथा निष्काम भाव से गुरु भक्ति-सेवा करते हुये वेद-शास्त्र तथा वेद-शास्त्रों के रहस्य रूप ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त करके उस ज्ञान (ब्रह्मज्ञान) का जनमानस में प्रचार-प्रसार करते हुये गुरु आज्ञानुसार समाज कल्याण करूँगा । गुरुदेव और ब्रह्म के सिवाय हमारा इस संसार में न कोई पहले था और न अब है और न आगे रहेगा । अतः अपने माता-पिता, सगा-सम्बन्धी, हित-नात, भाई-परिवार, गाँव-घर से भीक्षाटन करके यह दिखला दे रहा हूँ कि अब ‘मैं’ आप लोगों का नहीं रहा और न आप लोग अब मेरे रहे । अब मैं जो कुछ भी हूँ, गुरु सेवक एक ब्रह्मचारी ‘बटोही’ हूँ जो आप देश वासियों से गुरु आज्ञा से गुरु सेवा हेतु भीक्षाटन करने आया हूँ ।
       सद्भावी बन्धुओं ! उप नयन संस्कार के अन्तर्गत ब्रह्मचारी वेश में ‘सीखा’ (चोटी -- सिर पर ऊपरी हिस्से का केश) रखवाया जाता है कि भीक्षाटन के समय सभी लोग देख लें कि मैं सिख गया हूँ अर्थात् जिस ब्रह्म से विछुण गया था, जिस ब्रह्म की यादगारी भी समाप्त हो गयी थी यानी जिसे भूल गया था, अब उसे ‘मैं’ सिख गया। उससे (ब्रह्म से) विछुण जाने के कारण मैं जो ‘शूद्र’ बन गया था, जो शूद्रवत व्यवहार मैं लोगों तथा लोग मेरे साथ करते थे, तो अब मैं उसे सिख गया । अब मैं शुद्र नहीं रहा । अब मैं ब्रह्ममय आचरण (व्यवहार) वाला ब्रह्मचारी हो गया हूँ । मैं जो गर्भस्थ शिशु तक ब्रह्ममय था, मेरी रक्षा-व्यवस्था ब्रह्म द्वारा ही ब्रह्मनाल (नार-पुरईन) के माध्यम से होती रहती थी परन्तु जैसे ही ‘मैं’ गर्भ से बाहर हुआ कि स्वार्थी माता-पिता तथा परिवार के संरक्षक द्वारा मेरा ब्रह्मनाल (नार-पुरईन) जिसके द्वारा मैं ब्रह्म-शक्ति रूप पिता-माता से सम्बन्धित रहते हुये ब्रह्ममय था, उस ब्रह्मनाल (नार-पुरईन) को ‘चमईन’ यानी ‘प्रसूति सेविका’ बुलवाकर काट- कटवाकर मुझे ब्रह्ममय से शरीरमय बनाने का सिलसिला (अभ्यास) शुरु हो गया । जैसे ही मेरा ब्रह्मनाल काटा कटवाया गया, मेरा ब्रह्म-शक्ति रूपी पिता-माता से सम्बन्ध कट गया और ‘मैं’ अति परेशानी से युक्त होते हुये ‘अवाक्’ हो गया कि अरे ‘मैं’ कहाँ आ गया ? ‘मैं’ कहाँ आ गया ? तो मेरे साथ इन नकली शारीरिक माता-पिता बनने वाले मेरे समक्ष नकली साधन प्रस्तुत किये क्योंकि असल ब्रह्म-शक्ति रूप पिता-माता से तो ‘मैं’ ‘साधना’ के माध्यम से सम्बन्धित था तो यहाँ पर नकली शारीरिक माता-पिता (भावी) के पास ‘साधना’ की जानकारी तो थी नहीं, और साधना की जानकारी देते-दिलवाते तो ‘मैं’ इनका रह नहीं पाता । तब तो ‘मैं’ अपने असल ब्रह्म-शक्ति रूप पिता-माता से युक्त होकर उन्हीं का ही रहता । इन नकली वाले को कौन और क्यों पूछता ? इसका क्यों बनता ? मेरे ब्रह्म-शक्ति रूप पिता-माता के पास क्या नहीं था ? किस बात की कमी थी ? अर्थात् कुछ नहीं ! इसीलिये नकली शारीरिक माता-पिता (भावी) द्वारा स्वार्थ वश अपना बनाने हेतु सर्वप्रथम मेरा ब्रह्मनाल कटवा कर असल ब्रह्म-शक्ति रूप पिता-माता से सम्बन्ध कट जाने पर ‘मैं’ निःसहारा हो गया । परेशान हो गया । आवाक् हो गया कि मैं कहाँ आ गया तथा मेरे ब्रह्म-शक्ति रूप पिता जी और माता जी कहाँ चले गये ? क्यों नहीं दिखलाई दे रहे हैं ? उनकी दिव्य रोशनी (दिव्य ज्योति) वाला रूप कहाँ चला गया ? उनसे मिलने वाला ‘अमृत’ जो ‘मैं’ पान करता था, जिसके सहारे ‘मैं’ गर्भ में भी जीवित रहा और मुझे अन्न-जल की कोई आवश्यकता नहीं महसूस होती थी, वह भी मिलना बन्द हो गया । मेरे असल ब्रह्म-शक्ति रूप पिता-माता की हरदम ही पूजा-आरती होती रहती थी जिसमें नाना तरह के बाँसुरी, मृदंग, नगाड़ा, झालि (जोड़ी) आदि-आदि सभी बाजे बजते रहते थे । जिसे मैं बराबर सुनता हुआ आनन्द विभोर रहता था । वह भी अब सुनाई देना बन्द हो गया । पुनः मेरी सोऽहँ-ह ँ्सो वाली तैलधारा वत् अखण्ड वृत्ति जिसके द्वारा मेरे ब्रह्म-शक्ति रूप दिव्य ज्योति से अवधि सम्बन्ध ओर दरश-परश यानी मेल-मिलाप होता था। अब मेरी वह अखण्ड वृत्ति भी विस्मृत हो गयी । वह सोऽहँ-ह ँ्सो वाली अखण्ड वृत्ति खण्डित हो गयी जिससे कि मेरा ब्रह्म-शक्ति रूप असल पिता-माता से सम्बन्ध ही कट गया । मैं उनसे विछुड़ गया। अब मुझे काफी परेशानी हो रही है । मेरा अब बचना ही मुश्किल है । आखिर ऐसा क्यों हुआ ? यह सोचकर मैं परेशान हो गया और मैं कहाँ-कहाँ-कहाँ करके रोने लगा । अब मुझे लगा कि मैं अपने ब्रह्म-शक्ति रूप असल पिता-माता से विछुड़ कर निःसहारा होकर भटक कर कहीं गिर पड़ा हूँ और मैं अनाथ हो गया हूँ । किसी सहारा की आशा में मेरा अब अन्तिम दम घूँट रहा था । तब मेरी शारीरिक आँख काफी अफनाहट, उकबुकाहट (छटपटाहट) के कारण खुल गयी । जैसे कि स्वप्न में जब कभी विचित्र संकट की घड़ी में, कष्ट की छटपटाहट में एक बा एक (अचानक) आँख खुल जाती है, वैसी ही हमारी शारीरिक आँख जो बन्द थी, खुल गयी । जब शारीरिक आँख बन्द थी तो हमारी तीसरी आँख खुली हुई थी । उसके माध्यम से दिव्य पिता-माता रूप ब्रह्म-शक्ति (दिव्य ज्योति) का सदा ही साक्षात्कार होता रहता था परन्तु सम्बन्ध कट जाने पर वह दिव्य ज्योति दिखलायी देनी तो बन्द हो गयी थी । इस कारण मेरे समक्ष घोर अंधेरा छा गया था । मेरी दृष्टि जो ऊध्र्व होकर दिव्य दर्शन में लगी रहती थी, वह घोर अंधेरा के कारण उसके खोज में काफी परेशान हो गया । फिर ऊपर उसे कहीं भी वह दिव्य ज्योति दिखलायी नहीं दी । मुझे क्या मालुम कि मेरा ब्रह्मनाल या नार-पुरईन ही काट-कटवा कर मेरा दिव्य ज्योति रूप पिता-माता से सम्बन्ध काट-कटवाकर मुझे उनसे विछुड़ा दिया गया है । तब मैं इस दिव्य ज्योति की तलाश में जब वह ऊपर नहीं मिल सका तो मेरी दृष्टि ऊध्र्वमुखी से अधोमुखी हो गयी । घोर अंधेरा चारो तरफ रहने के कारण मेरी अफनाहट इतनी बढ़ गयी कि मेरे शारीरिक आँख का बन्द पपनी (दोनों पलके) अचानक-एक बा एक खुल गयी और मुझे एक ज्योति (दीप-ज्योति) दिखलायी दी जो मुझे घोर अंधेरा की छटपटाहट के कारण विक्षिप्तता वश मुझे यही समझ में आया कि मुझे वही दिव्य ज्योति मिल गयी तथा इस दीप-ज्योति को मैं एक टक लगाकर देखता और विक्षिप्तता के कारण लुभाता रहा । कुछ ही देर बाद देखा कि मेरे जीभ (जिह्वा) को जो ऊध्र्वमुखी था जिससे कि ‘मैं’ अमृत-पान करता था, उसे खींच कर अधोमुखी करते हुये मुख में ला दिया गया । इसके कारण वह सूखने लगी तो पुनः परेशानी बढ़ी और कण्ठ सूखने लगा जिससे कि मेरी विक्षिप्तता और ही बढ़ने लगी । मैं अपने को बिल्कुल ही निःसहारा यानी असहाय महशूस करने लगा । तब तक मेरे जीभ पर ‘अमृत’ ही समझकर उसका पान ‘अमृत पान’ जैसा (मधुपान) करने लगा । पुनः थोड़ी देर बाद आवाज सुनायी देने लगा तो मैं दिव्य ध्वनि जो मेरे दिव्य पिता-माता रूप ब्रह्म-शक्ति के यहाँ बराबर ही बजता रहता था जिसे मैं सुनते हुए आनन्द विभोर रहता था जिससे कि अब दिव्य सम्बन्ध कट (कटवा दिये) जाने के कारण विछुड़ गया था, तो उसकी भी परेशानी और उकबुकाहट यानी अफनाहट तो थी ही, उसी अफनाहट के कारण वह आवाज (फूल के थाली बजने वाली) मुझे वैसी ही लगी और मैं सुनकर पुनः मुग्ध या विभोर होने लगे कि मुझे वही दिव्य ध्वनि ही जिससे विछुड़ गये थे, पुनः मुझे प्राप्त हो गयी और वही सुनायी दे रही है । पुनः कुछ देर बाद मुझे अपनी सोऽहँ-ह ँ्सो वाली तैलधारावत् अखण्ड वृत्ति से खण्डित होने वाली बात कचोटने लगी यानी उसकी परेशानी होने लगी कि आखिर वह नाम (सोऽहँ-ह ँ्सो) ही क्यों विस्मृत हो गया ? मुझे क्या पता कि मेरा ब्रह्मनाल (नार-पुरईन) ही जिससे कि मैं अखण्ड वृत्ति में ही मस्त रहता था और मुझे कुछ आवश्यकता है अथवा मुझे कुछ चाहिये, ऐसी बातों को दिमाग में आने या सोचने के लिए फुरसत (मौका) ही नहीं था । मैं तो उसी अखण्ड वृत्ति के कारण दिव्य पिता-माता रूप ब्रह्म-शक्ति के मेल-मिलाप में मस्त था । मुझे अपने शरीर के रक्षा-व्यवस्था एवं विकास की भी सुध (यादगारी) नहीं थी । रक्षा-व्यवस्था का सारा भार उसी ब्रह्म-शक्ति रूप दिव्य पिता-माता पर था । नहीं तो उनके सिवाय कौन था जो गर्भ में मेरी रक्षा-व्यवस्था करता अर्थात् और किसी के मान का नहीं था । तो उस अखण्ड वृत्ति के खण्डित हो जाने से मेरी परेशानी तथा सोच-फिकर (अखण्ड वृत्ति के खण्डित होने की) होने लगी । अब मैं पुनः उस अखण्ड वृत्ति से युक्त कैसे होऊँ ? मेरे अन्दर यह खोज तथा नहीं मिलने या होने के कारण परेशानी होने लगी और पुनः मैं उसी खोज और परेशानी के कारण विक्षिप्त सा होने लगा और मेरी विक्षिप्तता बढ़ने लगी । तब कुछ समय पश्चात् सोऽहँ-
हँ्सो के जैसे ही मुग्ध करने वाली आवाज (सोहर) में ही मुग्ध हो गया । इस प्रकार मैं ब्रह्म-शक्ति रूप दिव्य पिता-माता से विछुड़ (बिछुड़ा दिये) जाने के कारण दिव्य उपलब्धियों जो स्थिर-अविनाशी मूलक थी, से बिछुड़ कर विनाश शील इस क्षणिक लाभों में लुभा कर ऊध्र्वमुखी रूप ऊध्र्व वृत्ति से अधोमुखी रूप अधःपतन को प्राप्त होता हुआ ब्रह्म-शक्ति रूप अविनाशी दिव्य पिता-माता के स्थान पर विनाशशील शारीरिक माता-पिता रूप शरीरों में फँसता हुआ अपने को भी शरीर ही मानने जानने लगा । और मात्र शरीरों माता (शरीर), पिता (शरीर), भाई (शरीर), बहन (शरीर), चाचा (शरीर), चाची (शरीर), दादा (शरीर), दादी (शरीर), मामा (शरीर), मामी (शरीर), फूआ (शरीर), फूफा (शरीर), मौसी (शरीर), मौसा (शरीर), अन्य हित-नात (शरीर), दोस्त-मित्र (शरीर), भाई-पटीदार (शरीर), गाँव-घर के लोग (शरीर) -- जिधर जाओ उधर ही शरीर, जिससे मिलो वह भी शरीर, जिससे जो भी व्यवहार करो, वह सब के सब ही शरीर और शारीरिक ही चारो तरफ दिखलायी देने लगा और मैं भी अपने को शरीर मय मानता हुआ उन्हीं शरीरों के मध्य विचरने लगा, खाने लगा, पहनने, रहने-सहने लगा । अर्थात् मैं जो गर्भ तक, गर्भ से बाहर आते समय तक ब्रह्म-शक्ति रूप अविनाशी दिव्य पिता-माता के सन्तान व उसी के सम्बन्ध में रहते हुए ब्रह्मनाल के सहारे में भी जीवात्मा रूप से अविनाशी रूप में ब्रह्ममय ही होकर रहता था परन्तु मेरा सहारा रूप ब्रह्मनाल काट-कटवा कर मुझे विनाशशील शरीरमय पुनः शरीर ही बना दिया गया तथा दिव्य उपलब्धियों के स्थान पर क्षणिक लुभावनी विनाशशील सामग्रियों में फँसा-फँसा कर लुभा दिया गया और ब्रह्मनाल कट (कटवा दिये) जाने के कारण निःसहाय होता हुआ फँसता गया। मुझे ब्रह्ममय से शरीरमय पुनः शरीरमय से शरीर होता हुआ अधःपतन के क्रम में पतन दर पतन के कारण शरीरों में भी मैं शूद्रवत् अति नीच शरीर वाली स्थिति तक पहुँचा दिया गया । मैं अछूत, मेरे से छू जाने वाले अछूत, मेरे पैदाइश वाली कोठरी अशुद्ध होता हुआ मैं अधःपतित ही हो गया था यानी मुझे पहुँचा दिया गया था । धन्य है गुरुदेव जो मुझे इस अधःपतन से उबारकर पुनः ब्रह्ममय रूप ऊध्र्ववृत्ति रूप उत्थान को पहुँचाया । अब मैं भीक्षाटन करके गुरु सेवा ही करूँगा तथा हमारे ही जैसे जो अधःपतन को प्राप्त होते हुये अधःपतित बना दिये गये हैं उन्हें गुरु कृपा से पुनः समझा-बुझा कर उत्थान रूप ब्रह्ममय बनाने में गुरुदेव का भरपूर सेवा करूँगा । मुझे केवल गुरु कृपा ही चाहिये और कुछ नहीं ।
       सद्भावी सत्यान्वेषी बन्धुओं ! आइए पुनः उप नयन संस्कार वाले विषय-वस्तु पर चला जाय । भीक्षाटन करते हुये ब्रह्मचारी को जनेऊ दिया जाता  है । जनेऊ देने का अर्थ यह था कि अब मैं जान गया हूँ -- जिससे बिछुड़ा (बिछुड़ाया गया) था उस ब्रह्म-शक्ति रूप अविनाशी दिव्य पिता-माता को जान गया हूँ और पुनः ऊध्र्वमुखी दृष्टि एवं वृत्ति से इस अपने असल अविनाशी दिव्य पिता-माता के दिव्य ज्योति रूप दिव्य रूप का भी ध्यान रूप दिव्य दृष्टि के द्वारा साक्षात्कार कर लिया । पुनः मैं असल ‘अमृत पान’ की बात भी समझ गया जिससे अमृत पान भी कर लिया । पुनः मैं अपने अविनाशी दिव्य पिता-माता रूप ब्रह्म-शक्ति के यहाँ हो रहे दिव्य ध्वनियों को भी असल रूप में सुन लिया तथा पुनः मैं गुरुदेव की कृपा से मेरी अखण्ड वृत्ति भी जो खण्डित हो चुकी थी, पुनः अपने अखण्ड रूप में हो गयी । इस प्रकार गुरु कृपा से अपने असल अविनाशी दिव्य पिता-माता रूप ब्रह्म-शक्ति का जिससे बिछुड़ा दिया गया था साक्षात्कार कर भी लिया तथा गुरु कृपा से जब चाहूँ तब कर सकता हूँ । गुरु कृपा से अमृत पान भी जिससे बिछुड़ा दिया गया था, कर रहा हूँ तथा गुरु कृपा से जब चाहूँ कर भी सकता हूँ । गुरु कृपा से ही मैं दिव्य ध्वनियों को जो मेरे अविनाशी दिव्य पिता-माता के यहाँ सदा ही होता रहता है, सुन लिया हूँ । अब जब चाहूँ गुरु कृपा से सुन भी सकता हूँ । गुरु कृपा से उस अखण्ड वृत्ति को भी प्राप्त हो गया हूँ जिससे ब्रह्मनाल कटवा कर बिछुड़ा दिया गया था तथा गुरु कृपा से ही यह मेरी अखण्ड वृत्ति बनी भी रहेगी । गुरु कृपा से ही मैं पुनः शुद्रवत् से शरीर से ऊपर उठकर आज ब्रह्ममय हो पाया हूँ तथा गुरु कृपा रही तो ब्रह्ममय से अब ब्रह्म में विलीन होकर ब्रह्म ही बनूँगा । अब फिर कभी उन शरीर प्रधान नकली विनाशशील, मायावी, घोर शत्रु जिसने मेरा ब्रह्मनाल कटवा कर मुझे अपने विनाशशील शरीर रूपों में फँसाया था अब उसके पास, उसके यहाँ जाना तो दूर रहा । उन मायावी शत्रुओं का नाम तक नहीं याद करूँगा क्योंकि वे महान पातकी है जो अविनाशी ब्रह्म-शक्ति रूप दिव्य पिता-माता से सम्बन्ध बिछुड़ा कर अपना तुच्छ स्वार्थ साधना चाहते हैं सब । अब हमारे गुरुदेव ही संसार में पिता-माता, स्वामी, गुरु, पति, संरक्षक आदि सब कुछ रहेंगे । ये ही मेरे इष्ट-अभीष्ट भी रहेंगे क्योंकि मुझे विनाश के मुख से निकाल कर अविनाशी ब्रह्म-शक्ति रूप पिता-माता से पुनः सम्बन्ध जोड़ कर मुझे अधः पतन से उबार कर मेरा अपार कल्याण किये हैं । ऐसे गुरुदेव को मेरा बार-बार हजार बार, बार-बार कोटि बार पुनः बार-बार अनन्त बार साष्टांग प्रणाम है तथा गुरुदेव से एक यही प्रार्थना है कि मेरा यह ज्ञान सदा कायम रहे तथा आप के चरण कमल की सेवा-भक्ति मुझसे कभी भी न छूटे । सद्गुरु चरण कमलेभ्यो नमः ।
         सद्भावी सत्यान्वेषी बन्धुओं ! जनेऊ ‘नरमा’ के रूई के सूत का बनता है । तो यहाँ यह भी बात है कि बालक ब्रह्म-शक्ति को जानने के कारण नरम, मुलायम तथा हल्का (अहंकार शून्य) हो गया है । यही कारण है कि नरमा के रूई का ही प्रयोग जनेऊ के लिये होता है क्योंकि अन्य सभी रूइयों में नरमा की रूई सबसे नरम, मुलायम, हल्का और पवित्र होती है । जनेऊ तो असल अविनाशी दिव्य पिता-माता रूप ब्रह्म-शक्ति के जानने वाले होने के प्रतीक स्वरूप ही धारण होता है । पुनः जनेऊ में तीन सूत होता है । तो पुनः प्रश्न उठ सकता है कि तीन सूत ही क्यों होता है ? तो यहाँ पर यही जवाब होगा कि तीन ही गुण (सतोगुण-रजोगुण- तमोगुण) होता है । इसीलिये उन्हीं तीनों गुणों के प्रतीक रूप तीन ही सूत होता है कि यह ब्रह्मचारी इन तीनों गुणों से ऊपर उठ गया है यानी तीनों गुणों से परे हो गया । पुनः तीनों सूत अपने में प्रत्येक में तीन-तीन सूत होता है । इसके लिये भी आप प्रश्न उठा सकते हैं कि ऐसा क्यों ? तो इसके समाधान हेतु यही उत्तर है कि तीनों गुण अपने में प्रत्येक में ही तीन-तीन अवस्थाएँ (जाग्रत-स्वप्न-सुसुप्ति) होती है । उसी का प्रतीक यहाँ पर तीनों सूत अपने में प्रत्येक तीन-तीन सूत का होता   है । इससे यह संकेत किया जाता है कि ब्रह्म-शक्ति से युक्त ब्रह्मचारी इन तीन अवस्थाओं से भी परे हो जाता है यानी इन तीन अवस्थाओं का भी उस पर प्रभाव नहीं समझाा है । तीनों में ही ब्रह्मचारी सम रूप ही रहता है । जनेऊ में जो सबसे महत्त्वपूर्ण बात होता है, वह यह होता है कि उसमें ब्रह्मगाँठ होता है जिसका अर्थ जीव का ब्रह्म-शक्ति से --जो ब्रह्मनाल (नार-पुरईन) कटवा कर सम्बन्ध काट यानी विच्छेद कर दिया गया था और माया में फँसा दिया गया था तो यहाँ पर ब्रह्मगाँठ के माध्यम से यह संकेत दिया जाता है कि ब्रह्मचारी इन त्रिगुणमयी माया से निकल कर ब्रह्म-शक्ति से अपना साँठ-गाँठ जोड़ लिया है यानी अब यह शरीरमय अथवा मायामय नहीं रहा बल्कि ब्रह्ममय हो गया है । यह ब्रह्म-शक्ति से पुनः गाँठ जोड़ लिया।
       सद्भावी सत्यान्वेषी बन्धुओं ! ब्रह्मचारी को उसके हाथ में कपास का दण्ड दिया जाता है तो यहाँ पर यह शंका हो सकती है कि कपास का ही दण्ड (डण्डा) क्यों दिया जाता है ? क्यों नहीं किसी और ही चीज का दिया जाता है। इसके समाधान में यह उत्तर होगा कि कपास निरस का प्रतीक होता है और ब्रह्मचारी भी निरस ही होता है । पुनः कपास में विस्तृत मात्रा में गुण होता है, उसी प्रकार से ब्रह्मचारी भी ब्रह्म-शक्ति से युक्त होने-रहने के कारण विस्तृत क्षेत्र में उसकी ब्रह्ममय सत्ता-शक्ति रूप क्षमता कार्य करने लगती है । जिस प्रकार कपास ही है, जो समस्त मानव के तन ढकने का कार्य करता है, ठीक वैसा ही ब्रह्मचारी ही माया जाल में फँसकर अधःपतन को प्राप्त मानव को माया जाल काट करके उसको उससे मुक्त कराने का अथक प्रयास करता रहता है । यही कारण है कि ब्रह्मचारी को निरसता एवं गुणवत्ता के प्रतीक रूप कपास का ही दण्ड (डण्डा) दिया जाता   है । अब बात आयी कि ब्रह्मचारी को दण्ड (डण्डा) दिया ही क्यों जाता है ? तो ब्रह्मचारी को दण्ड देने का भाव यह है कि मायावी जन उस दण्ड को देखकर ही जान-समझ लें कि ब्रह्मचारी अब सामान्य बालक नहीं है, अपितु ब्रह्म-शक्ति से युक्त ब्रह्ममय है । अब कोई फँसाने के लिये उसके पास नहीं जा सकता है। यदि उसके पास फँसाने हेतु मायावी कुछ भी और कोई भी जायेगा तो दण्ड का भागी होगा और ब्रह्मचारी उस दण्ड के लिये दोषी न होगा क्योंकि दण्ड धारण कर वह पहले ही चेता दे रहा है कि मेरे पास दण्ड भी है।