गृहस्थ जीवन

गृहस्थ जीवन 
          सद्भावी गृहासक्त बन्धुओं ! साँसारिक व्यवस्था के आभासित पोषक आप बन्धुओं से आप बन्धुओं के सम्बन्ध में भगवत् कृपा से हम यहाँ पर कुछ कटु सत्य बातें बताने अथवा जानकारी देने हेतु आगे बढ़ रहे हैं । सत्यता के कारण कुछ कटु लगने वाली बातें भी इसमें आ सकती हैं क्योंकि हम परमसत्य के संस्थापक एवं संचालक होने के कारण सत्य एवं यथार्थ बातें कहने हेतु मजबूर हैं। इसीलिए आप बन्धुओं से पहले निवेदन कर दे रहा हूँ कि आप बजाय दुःख मानने, चिढ़ने या विक्षुब्ध होने के गम्भीरतापूर्वक यथार्थ बात जानने-समझने और सत्य को स्पष्टतः साक्षात् देखने का प्रयत्न करें ।
        सद्भावी गृहासक्त बन्धुओं ! आइए अब मूल विषय-वार्ता पर चला जाय। प्रायः गृहस्थ जीवन की शुरुआत शादी-विवाह से ही शुरू होते देखा जाता है । हालाँकि अविवाहित गृहासक्त मानव भी गृहस्थ वर्ग में ही आते हैं । गृहस्थ जीवन शारीरिक एवं साँसारिक कर्म तथा उसके अनुसार भोग प्रधान जीवन व्यवस्था है । इसके अन्तर्गत चार स्तर विशेषतः दृष्टिगत होता है -- जनम-करम-भोग-मरण पुनः वही क्रम जनम-करम-भोग-मरण, पुनः पुनः पुनः वही क्रम जनम-करम- भोग-मरण से सम्बन्धित ही एक जीवन व्यवस्था है ।  यह वर्ग (गृहासक्त) जितना ही जढ़ी होता है, उतना ही मूढ़; जितना ही परिश्रमी होता है, उतना ही आसक्त; जितना ही अभागा होता है, उतना ही पतित; जितना ही साधन सम्पन्न होता है, उतना ही अशान्त; जितना ही सुख की चाह रखता है, उतना ही कष्ट पाता है; आदि आदि यह वर्ग अधः पतन को प्राप्त अधः पतित ही होता है । यह कथन चूँकि पूर्णतः ‘सत्य’ पर आधारित है इसलिए जो इस बिल्कुल ही मिथ्यात्त्व पर आधारित परिवार-संसार में सटे-चिपके बन्धुओं को थोड़ा-बहुत कष्ट हो सकता है । मगर सच्चाई पूर्णतः ऐसा ही हो तो कहा ही क्या जा सकता है ।
विवाह
      सद्भावी गृहस्थ बन्धुओं ! आइये पहले-पहल यह देखा जाय कि  शादी-विवाह क्या है तथा समाज को इसकी आवश्यकता क्यों पड़ती है ? क्या सभी के लिए विवाह की अनिवार्यता है ? आनन्दमय जीवन हेतु विवाह क्या सबसे जरूरी विधान है जीवन लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु विवाह क्या जरूरी यानी आवश्यक है ? आदि आदि विषयों पर थोड़ा-बहुत सूझ-बूझ के साथ आप पाठक बन्धुओं हेतु अथवा इसके श्रोता बन्धुओं के लिए भी अपना ‘मत’ प्रस्तुत कर रहा हूँ जो निश्चित ही कामी, लोभी, मूढ़ एवं आसक्त के लिए लगने वाली या विक्षुब्ध होने वाली बात है परन्तु सूझ-बूझ वाले के लिए तो सागर में डूबते हुए को बचाने हेतु एक सुदृढ़ नाविक से युक्त सुदृढ़ नाव के समान ही होगा । विवाह ‘सन्तान उत्पन्न करने के साथ-साथ सुखमय जीवन यापन हेतु लड़की-लड़का का मान्य विधानों के अनुसार सह-जीवन ही विवाह है ।’ ‘विवाह गृहस्थ जीवन की प्रायः सबसे पहली कड़ी या विधान होता है जिससे प्रायः सभी लोग ही यह जान मान लेते हैं कि अब यह गृहस्थ जीवन में आ गया यानी गृहस्थ बन गया । अब यह खेती-बारी, व्यापार, नौकरी-चाकरी आदि करता हुआ परिवार का पालन-पोषण तथा वंशवृद्धि करेगा । यही गृहस्थ जीवन का कार्य एवं लक्ष्य होता है जिसकी प्रायः सभी गृहस्थ ही कामना करते हैं ।
सहयोग
       सद्भावी गृहस्थ बन्धुओं ! आइये जरा इसे देखा जाय कि विवाह की आवश्यकता ही क्यों पड़ती है ? अब यहाँ पर यही प्रश्न हल किया जाय या शंका-समाधान किया जाय । आदि से पूर्व एकमात्र परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप शब्दब्रह्म ही परमब्रह्म रूप सर्व शक्ति-सत्ता-सामथ्र्य युक्त थे जिसके अन्दर अचानक एक तरंग उठा कि ‘कुछ हो।’ चूँकि वह शब्द ब्रह्म रूप परमब्रह्म संकल्प शक्ति से युक्त थे, इसी से ‘कुछ हो’ ऐसा तरंग उठते ही उसी में से ‘आत्म’ निकल कर  पृथक् हुआ, जो एक आश्चर्यमय प्रचण्ड ज्योति पुंज से युक्त था, जो आत्म-ज्योति है । वह आत्म-ज्योति चेतना युक्त थी । यही आत्म-ज्योति आदि शक्ति के रूप में प्रकट हुई क्योंकि आदि शक्ति एकमात्र उसी शब्द ब्रह्म शब्द रूप परमब्रह्म की अंगभूता संकल्प-शक्ति ही हैं । जब-जब सृष्टि उत्पत्ति की बात उनके अन्दर तरंग रूप में हिलौरें मारती हैं, तब-तब सर्वप्रथम यही ‘आत्म-ज्योति’ रूपा आदि शक्ति उत्पन्न या प्रकट होती है और उन्हीं के सकाश तथा अध्यक्षता मेें सृष्टि-रचना कार्य करती-कराती हैं तथा उन्हीं के सकाश या मालिकाना में उन्हीं की सेविका रूप में सृष्टि का संचालन और अन्त में सृष्टि-लय करती-कराती हुई वह भी उन्हीं में लय यानी विलीन हो जाती है । यह ‘आत्म-शक्ति’ ही कालान्तर में ब्रह्म-शक्ति, ईश्वर-शक्ति, दिव्य शक्ति, शिव-शक्ति, प्रकृति, आदि-शक्ति, महा माया, चेतन-शक्ति आदि शब्द से जानी गयी। सृष्टि-रचना; सृष्टि-संचालन तथा सृष्टि-लय यही करती-कराती है । इनका मालिक शब्द ब्रह्म रूप परमब्रह्म रूप खुदा-गाॅड-भगवान् तो सदा ही परमानन्द रूप सच्चिदानन्द रूप सदानन्द में ही सदा आनन्दित रहते हैं । जब-जब आदि शक्ति के माध्यम से साँसारिक व्यवस्था के छिन्न-भिन्न की बात सुनते हैं तथा यह भी जानते हैं कि अब भू-मण्डल की व्यवस्था आदि-शक्ति से भी सुलझने वाला नहीं  होता है; तब तब वही (परम प्रभु) अवतार लेकर सबको ‘ठीक’ करते हैं तथा व्यवस्था कर-करा कर दिखाते हुए कि व्यवस्था ऐसे होता है । पुनः अपने  परम आकाश रूप परमधाम को वापस हो जाते हैं ।
        यहाँ पर इस बात को लाने कहने की आवश्यकता इसलिए पड़ी कि कोई जब कुछ करना सोचेगा या करना चाहेगा, तो सर्वप्रथम उसके लिए सहयोग करना-लेना होगा जैसा कि परमब्रह्म और आदि-शक्ति की बात ऊपर कही गयी है। सृष्टि के रचना हेतु वे भी आदि-शक्ति को सहयोगिनी बनाये । आदि शक्ति को जब सृष्टि-रचना करना हुआ तो ब्रह्मा-स्वरसती को उत्पन्न कर उनका सहयोग ली, पुनः संचालन हेतु विष्णु व लक्ष्मी को उत्पन्न किया तथा उनका सहयोग लिया पुनः सृष्टि लय या संहार हेतु शंकर व उमा को उत्पन्न कर उनका सहयोग लिया। यहाँ सर्व प्रथम उत्पत्ति विष्णु की की गयी थी । क्रमशः ये लोग भी सहयोग लिए तथा यही क्रम आज तक भी है ।