दुनिया दोहरी रीति की

दुनिया दोहरी रीति की
        सद्भावी सत्यान्वेषी युवक बन्धुओं ! आप युवा बन्धुओं की यह दलील (तर्क) भी ठीक ही है कि सभी सामाग्रियाँ भोग कर देखा जा चुका है परन्तु किसी भी विषय वस्तु में स्थिर शान्ति और आनन्द की अनुभूति नहीं हो रही है, हो न हो लड़की से; जब विवाह होगा, तब ही वास्तव में स्थिर शान्ति और आनन्द की अनुभूति होगी क्योंकि स्त्री-भोग में यदि स्थिर शान्ति और आनन्द नहीं होता, तो समाज का अधिसंख्यक वर्ग स्त्री-भोग हेतु विवाह ही क्यों करता ? दूसरी ओर सबसे बड़ी महत्त्व की दलील यह है कि संसार में कुछ करने हेतु तथा सुखमय जीवन हेतु एक सहयोगिणी, एवं एक सहगामिनी की अनिवार्य आवश्यकता है। प्रायः चारों तरफ देखने पर भी यही दिखलायी दे रहा है । युवक बन्धुओं की यह दलील अपने आप में महत्त्वपूर्ण है तथा ठीक लगता भी है क्योंकि कोई पुरुष अकेले पूर्ण नहीं होता, बल्कि स्त्री-पुरुष का जोड़ा ही एक पूर्ण शरीर होता है और जब तक मनुष्य पूर्ण नहीं बन जाता, तब तक समाज में न तो ठीक से कुछ कर ही सकता है और न भोग में ही अपेक्षित सुख की प्राप्ति कर सकता है । संसार में रहते, कर्म करते और भोग भोगते हुए सुखमय जीवन-यापन करना है तो कर्म और भोग में एक स्थाई सहारा आवश्यक होता है । दुनिया दो का ही संयुक्त रूप है जैसे-- सत्य-असत्य, अच्छाई-बुराई, दिन-रात, ऊपर-नीचे, सुबह-शाम, समुद्र-पहाड़, आकाश-पाताल, माता-पिता, स्त्री-पुरुष, पति-पत्नि, लड़का- लड़की,़ बालक-बालिका, प्रकाश-अंधेरा, जगना-सोना, उठना-बैठना, करम- भोग, ज्ञान-ध्यान, उत्तम-अधम, उत्थान-पतन, उन्नति-अवनति, चढ़ना- उतरना, सुनना-देखना, जानना-मानना, खाना-पीना, जीना-मरना, आना-जाना, स्वामी-सेवक, भगवान्-भक्त, प्रेमी-प्रेमिका, धरम-करम, योग-भोग, स्वर्ग-नर्क, मुक्ति-भुक्ति, मेल-मिलाप, मित्र-शत्रु, सहयोगी-विरोधी, मान-अपमान, इज्जत- बेइज्जत, ईमान-बेईमान, ज्ञानी-अज्ञानी, चेतन-जड़, गुण-दोष, शान्ति-अशान्ति, हर्ष-शोक, सुख-दुःख दीक्षा-शिक्षा, मन्त्र-तन्त्र, धार्मिक-साँसारिक, परमार्थ- स्वार्थ, कत्र्ता-भोक्ता, सत्ता-शक्ति, कत्र्तव्य-अधिकार, पाना-खोना, देना-लेना, अविनाशी-विनाशी, चर-अचर, पढ़ना-लिखना, पढ़ाना-लिखाना, गुरू-शिष्य आदि आदि । इस प्रकार प्रायः दो के मेल-मिलाप से ही दुनिया की सार्थकता भी   है । यहाँ पर संयोग-वियोग, अनुकूल-प्रतिकूल, मैं-मैं, तूँ-तूँ, मेरा-तेरा, अपना-- पराया, पक्ष-विपक्ष, परमार्थी-स्वार्थी, धार्मिक-अधार्मिक, योगी-भोगी आदि किसी भी दो में से एक को निकाल दिया जाए तो दूसरा अपने आप में महत्त्वहीन हो जाएगा । असत्य के बगैर सत्य का, अधर्म के बगैर धर्म का, अन्याय के बगैर न्याय का, अनीति के बगैर नीति का, वियोग के बगैर संयोग का, जड़ के बगैर चेतन का, दोष के बगैर गुण का, स्त्री के बगैर पुरुष का, अज्ञान के बगैर ज्ञान का महत्त्व ही नहीं हो पायेगा फिर दुनिया रह ही क्या जाएगी अर्थात् कुछ नहीं । इसलिए सुखमय जीवन यापन हेतु संसार में पुरुष के लिए स्त्री तथा करम के लिए भोग को आवश्यक जानकर ही रचना हुई है ।
        सद्भावी सत्यान्वेषी युवक बन्धुओं ! पिछले पैरा की बातों को देखते हुए पुरुष के लिए स्त्री तथा स्त्री के लिए पुरुष की आवश्यकता अवश्य महशूस हो रही है । इसको देखते हुए आप बन्धुओं को विवाह अवश्य करना चाहिए क्योंकि दुनिया में आये हैं, तो दुनियादारी कीजिए, दुनियादारी के लिए दो का होना-रहना भी आवश्यक है । भगवान् ने दुनिया को अपने खेल-आनन्द स्वरूप बनाया ही है, जिसमें हम-आप खेल के खिलौनों के समान हैं । दुनिया में आकर दुनियादारी अवश्य कीजिए, दुनियादारी हेतु दो का मेल तथा दो के मेल हेतु विवाह भी आवश्यक ही है । ऐसा ही सोच-समझ कर माता-पिता भी अपना बोझ हल्का करना भी चाहते हैं क्योंकि ये जो थे, आप को भी बना ही दिये। ब्रह्ममय जीवधारी मानव का ब्रह्म-शक्ति से सम्बन्ध विच्छेद कर-करा कर माता-पिता आदि नाना प्रकार के सम्बन्ध कायम कर-करा कर लाड़-प्यार, ममता-दुलार सब कुछ दे-लेकर जब हम-आप को ब्रह्म-शक्ति से बिछुड़ा-भटका कर शरीरों (माता-पिता) में अटका-फँसा कर जब पूरा-पूरा शारीरिक-पारिवारिक एवं साँसारिक रूप में जब आप को बना दिये हैं, तब, अब आप उनके बोझ हो गये हैं। आप कभी भी सुन सकते हैं कि माता-पिता पर आप बोझ हैं। चाहे आप युवक हों या युवती अपने माता-पिता के बोझ हो गये हैं। अब वे आपका भार बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं । अब आप इसकी अच्छी तरह से परीक्षा कर सकते हैं । कोई ऐसा साँसारिक माता-पिता नहीं हैं जिनको अपना युवक पुत्र और युवति पुत्री उन पर भार न हों अर्थात् वे अपने पर भार महसूस न करते हों । इनका भार दो ही सूरत में हल्का हो पायेगा । वह पहले और सबसे महत्त्व वाला है कि अब आप कमाकर उन्हें कुछ (रूपया-पैसा) दें, क्योंकि ये लोग (माता-पिता  आदि) जो आपको लाड़-प्यार दिये थे, अपने में फँसाकर  जो खर्च-आदि किये थे; तो ये पागल नहीं थे, इनको कुत्ता नहीं काटे  हुए था कि आप पर इस तरह से खर्च कर रहे थे, प्यार दे रहे थे। इसलिए नहीं सब दे रहे थे कि माता-पिता थे, बल्कि प्रत्येक कार्य के पीछे कोई रहस्य छुपा था, कोई राज था जिसको ये अपने अन्दर सजो (छिपाये रख) कर रखे थे ।
        ये (माता-पिता) ब्रह्म-शक्ति से हमारा-आपका जो सम्बन्ध कटवा कर इतना बड़ा घोरतम कुकर्म और पाप कुछ सोच-समझ कर ही करवाये तथा नाना उपाय-यतन- खर्च-लाड़-प्यार देकर अपने में फँसा पाये थे । इन सभी बातों के पीछे जो रहस्य था, वह यह नहीं था कि आप लाचार हैं और ये माता-पिता हैं बल्कि महत्त्वपूर्ण रहस्य यह था कि आप से इनको कुछ चाह थी और उसका समय भी अब आ गया है। आप युवक हो गये  हैं । अब कमाइये और इनको सब कुछ जो लिये-पाये हैं, भरपाई कीजिये । ये जो लाड़-प्यार दिये थे, उसके बदले सेवा-श्रुषुषा कीजिये । ये सब आप पर ऋण हो गया है, इस माता-पिता के ऋण से उऋण होइये। ये माता-पिता नहीं थे आपके ऋण दाता थे । आप बचपन में जो ऋण खाये-पिये हैं, उसे भरिये । चलिए नौकरी कीजिये, कमाइये और लाकर इन्हें खिलाइये, लाकर इन्हें दीजिये; तब तो आप सही पुत्र या परिवार के ठीक सदस्य होंगे । यदि आप नहीं कमाइयेगा तो परिवार में अब आप को खाना-पीना भी नहीं मिलेगा, साथ ही साथ उसके स्थान पर अब ‘ताना’ मिलेगा कि आलसी हो गया है, कमाता-धमाता कुछ नहीं, आकर दोनों टाइम (समय) खा-पी लेता है । जिन्दगी भर इसको हम ही लोग खिलायेंगे-पिलायेंगे । फिर यदि आप कोई नौकरी नहीं कर रहे हैं या कोई काम नहीं कर रहे हैं तो आपको नाना प्रकार की उपाधियाँ बिना पढ़े-लिखे, बिना परिश्रम किए ही मिलने लगेंगी । ये उपाधियाँ क्या हैं ? तू--- ‘आवारा’ हो गया है । ‘लोफर’ हो गया है । ‘आलसी’ हो गया है । ‘निकम्मा’ हो गया है । लीजिए बटोरिये उपाधियों को । ऐसे ही अगणित उपाधियाँ आये दिन मिलने लगती हैं । यदि आप कुछ दिन भी बिना कुछ किये परिवार में पड़े रहे, तो आप से कोई ठीक से बोलने वाला तक नहीं मिलेगा ।
        बन्धुओं अब आप परिवार पर वह भार हो गये हैं कि परिवार यहाँ तक सोचने पर उतारू हो जाता है कि कहीं जाता तो कम से कम पेट भर तो कमाता। नहीं हम लोगों को पूछता तो कम से कम अपना तो काम चलाता। आप यदि ऐसी परिस्थिति में हों तो देखिये कि अब न आप इन लोगों के बेटा-बेटी (पुत्र-पुत्री) रहे और न ये लोग आपके माता-पिता  यदि आप कमाने-धमाने लगे हैं तो कुछ दिन रूपया-पैसा देना बन्द करके देख लीजिये कि कौन कितना आप का हैे ।
 
                                                                   भार उतारना  
      सद्भावी युवा बन्धुओं ! ये (शारीरिक) माता-पिता, संरक्षक आदि आपका शादी-विवाह  इसलिए नहीं कर रहे हैं कि बबुआ (पुत्र,भाई आदि) को स्त्री भोग का सुख मिले या स्थिर शान्ति और आनन्द मिले, बल्कि ये इसलिए करना-कराना चाहते हैं कि आप इनके सिर पर भार हो गये हैं, बोझ हो गये हैं, तो आप से सीधे कैसे कहें कि आप हमारे सिर पर भार हो गये हैं, कहीं चले जाइये, कुछ कमा कर लाइये । इसी बात को पूरा करने के लिए ये ऐसी परिस्थिति ही उत्पन्न कर देना चाहते हैं कि आपको कहीं कुछ करना-धरना ही पड़ेगा । कुछ कमा-धमा कर लाना ही पड़ेगा । क्योंकि जब शादी-विवाह कर दिया जाएगा, तो वह खुद ऐसी समस्याएँ उत्पन्न करेगी कि इनको कमाने-धमाने के लिए मजबूर होना ही पड़ेगा। परिवार तो सीधे जवाब दे देगा कि ‘‘कौन-कौन समस्या आप लोग के हल करीं, तह लोगन के खाइल पीयल पूरा करीं, कि कपड़ो-लता पूरा करीं, कि साबुन-सोडा पूरा करीं, कि का-का करीं; कहीं कुछ कमाये-धमाये के हइये नइखे, त कहाँ से इ कुलि होई । अब तू आ तोहार ई परिवार हमर बस के नइखे । ले जा जहाँ मन करे, हाथ तूही न पकड़ ले बाड़ । त हाथ पकड़ ले के लाज निभाव । हमन का-का करीं।’’ आपको कमाने हेतु मजबूर होना ही पड़ेगा ।
        सद्भावी सत्यान्वेषी युवक बन्धुओं ! यह कदापि आपके शान्ति और आनन्द तथा सहयोग, सह धर्म के लिए शादी-विवाह नहीं करते हैं बल्कि अपना भार उतारते हैं । यह चाहे देहाती परिवार के हों या शहरी, अशिक्षित परिवार वाले हों या शिक्षित, गरीब परिवार वाले हों या धनी। प्रायः सभी के अन्दर अब एक मात्र  यही बात रह गई है, अपना भार या बोझ हल्का करना तथा आपको लगा-फँसाकर कमाई कराने, नौकरी कराने आदि । ये (माता-पिता, संरक्षक आदि) अच्छी तरह जानते हैं कि परिवार एक आपत्ति-विपत्ति है, परिवार अशान्ति, अस्थिरता, समस्याओं, शोक, कष्ट, परेशानियों आदि का घर है । फिर भी आप को फँसाते हैं ये जानते हैं कि परिवार माया जाल है-कर्म बन्धन है फिर भी आप को मायाजाल में फँसाते हैं- कर्म बन्धन में बाँधते हैं । आप के जीव-जीवन के मंजिल रूप मुक्ति-अमरता परम कल्याण से  इनको कोई-कुछ भी मतलब नहीं है । अब आप को स्वतः ही सोचना-समझना चाहिए कि ये लोग आप के कितने हितेच्छु और कितने पतन-विनाश कारक हैं ।
          परिवार बसाकर कोई आदमी शान्त नहीं रह सकता है, स्थिर नहीं रह सकता है, सुख से नहीं रह सकता है, स्वतन्त्रता एवं स्वछन्दता समाप्त हो जाती है,पराधीनता एवं पैरों में मोह की डण्डा-बेड़ी तथा हाथ में ममता-आसक्ति रूपी हथकड़ी लग जाती है, जिससे छूटना जन्म-जन्मान्तर तक के लिए भी कठिन है, लोहे की हथकड़ी तो खुल जाती है परन्तु मोह-ममता वाली करोड़ों जन्मों तक खुलनी आसान नहीं है । परिवार  से सुख-चैन छिन जाता है, नाना प्रकार की चिन्ताएँ रात-दिन जलाने लगती हैं, समस्याएँ एक न एक दिन सिर पर चढ़ी ही रहती हैं, अथक परिश्रम करके लाइये, तब भी ठीक से भरण-पोषण मुश्किल हो जाता है, परिवार के ठीक से भरण-पोषण हेतु चोरी,लूट, जोर-जुल्म, अत्याचार तथा सभी भ्रष्टाचारों का मूलरूप घूसखोरी आदि सब कुकर्म-पाप राशि बटोर-बटोर  कर तो किसी तरह पारिवारिक भरण-पोषण हो पाता है अर्थात् परिवार सुख के आड़ में सभी कुकर्मों सभी आपत्तियों-विपत्तियों तथा पाप राशि बटोरने वाली महान् विपत्ति ही है । फिर भी अनुभव करते हुए भी परिवार वाले अपने युवक-युवतियों को फँसा देते हैं। क्योंकि अब यह ऐसा करने के लिए मजबूर है । आपका भार अब ये सहन भी नहीं कर सकते हैं । अपनी पारिवारिक अन्दरूनी परेशानियों एवं कष्टों को आप से लज्जा एवं संकोच वश कह भी नहीं सकते हैं । साथ ही यह भी  डर है कि असलियत समझाने पर यह उल्टे जवाब न दे दें, कि अपने तो भोग चुके और भोग रहे हैं तथा हमारे लिए आपत्ति-विपत्ति की खान बतला रहे हैं । अस्थिरता, अशान्ति का घर कह रहे हैं तथा साथ ही यह भी भय है कि परिवार छोड़-छाड़ कर कहीं साधू-सन्यासी न हो जाय । घर छोड़ कर कहीं चला न जाय आदि नाना प्रकार की चिन्ताओं से ग्रसित ये कि कर्तव्य विमूढ़ हो गये होते हैं । हर तरह से सोच-विचार तथा धन के लोभ के कारण कि कमाकर लाकर कुछ देगा - युवक का विवाह करने-कराने हेतु मजबूर होते हैं।
       अतः यहाँ पर युवक-युवतियों का सब कुछ जानना-देखना, सोचना एवं समझना काम है  कि वे भी ऐसे उपरोक्त एवं पूर्वोक्त परिवारों के रूप में दुनिया में दुनियादारी करेंगे कि किसी आध्यात्मिक महापुरुष तथा तात्त्विक सत्पुरुष या परमपुरुष रूप भगवदवतार के शरणागत होकर ब्रह्मानन्द तथा परम-शान्ति और परम आनन्द की अनुभूति और बोध प्राप्त करते हुए  निर्दोष, मुक्त और अमर जीवन व्यतीत करते हुए ब्रह्म पद तथा परम पद रूप परमधाम के सदा भगवद् पार्षद बनेंगे तथा संसार में भी महापुरुष के रूप में शास्त्रों और मन्दिरों में रहेंगे ?
          
         सद्भावी सत्यान्वेषी युवक बन्धुओं ! अब आप युवक बन्धुओं पर यह निर्णय लेना है कि आप को माया-मोहासक्त विनाशशील साँसारिक गृहस्थ बनना है या इनसे परे माया-मोह रहित ‘शान्ति और आनन्द की अनुभूति एवं परमशान्ति एवं परमानन्द  तथा ‘‘मुक्ति और अमरता से युक्त’’ अविनाशी एवं अमरता के बोध रूप ब्रह्ममय आध्यात्मिक-महापुरुष एवं तात्त्विक परमपुरुष रूप भगवदवतार के पार्षद रूप सत्पुरुष  यह दोनों मार्ग अपने-अपने गुण-दोषों के साथ आपके समक्ष हैं । यह आप पर है कि दोनों में से किसका चुनाव आप कर रहे हैं । तो यहाँ पर यह भी जान लें, कि महापुरुष एवं सत्पुरुष वाली जानकारियाँ आगे दी जाएगी। यहाँ पर माया मोहासक्त विनाशी-साँसारिक गृहस्थ की चर्चा होने चल रही है। अब आप जानें और आपका काम जानें ।  
युवक-युवती समान
       
         सद्भावी सत्यान्वेषी गृहस्थ बन्धुओं ! युवक बन्धुओं ! विवाह हेतु यह विशेष महत्व की बात है कि युवक-युवती प्रायः समान आयु, समान आहार-विहार, समान रूप यौवन, समान स्थिति-परिस्थिति एवं समान शिक्षा-दीक्षा वाले हों, तो  सबसे अच्छा परन्तु यदि समान किसी कठिनाईवश न मिल पाते हों, तो यह यादगारी अत्यन्त ही महत्त्व की होनी-रहनी चाहिए कि युवक-युवती से हर मामले में थोड़ा-बहुत बीस यानी श्रेष्ठ हो, तब ही परिवार पारिवारिक लाभ प्राप्त कर सकता है । यह भी साथ ही स्मरण रखने एवं महत्त्व देने की बात है कि युवती युवक से श्रेष्ठ कभी भी और किसी भी परिस्थिति में न रहे, अन्यथा वह परिवार सदा ही कष्टों में रहेगा । यह रही युवक युवती के विवाह के पूर्व के देख-रेख एवं जांच पड.ताल की बात ।
विवाह हेतु युवती के पिता का दायित्व

       सद्भावी गृहस्थ बन्धुओं ! विवाह को तथा पारिवारिक सम्बन्ध को सुचारू रूप से निर्वाह हेतु युवती के पिता अथवा संरक्षक पर बहुत बड़ा दायित्व होता है कि वह युवती के समकक्ष बल्कि थोड़ा श्रेष्ठ ही युवक एवं परिवार को अच्छी तरह से जाँच-पड़ताल कर-करा कर ही विवाह सम्बन्धी वात्र्ता चलावें । इस बात का सदा ही ख्याल रहे कि युवक का परिवार युवती से निम्न या गरीब या कमजोर आदि किसी भी मामले में कम न हो, अन्यथा युवती को कष्ट होगा, जिसका अधिकतर दायित्व पिता अथवा संरक्षक का ही होता है, इसलिए युवती के कष्टों के दोष के भागी वही होंगे । इसलिए काफी सूझ-बूझ एवं खोज-खबर, जाँच-पड.ताल के बाद ही समकक्ष होने-मिलने या श्रेष्ठतर मिलने पर ही शादी-विवाह तय किया जाए । जिससे लड..की (युवती) जहाँ जाय, वहाँ कम से कम जिस सुख-भोग के लिए वह पारिवारिक बन्धन में पड़ रही है, वह सुख-भोग तो उसे ठीक-ठीक मिल सके । वह कष्ट में न पड.ने पावे । आगे चलकर करोड़ों-करोड़ों बार यमराज के मृत्यु रूप दुःसह यातनाओं से तो गुजरना ही गुजरना है, गुजरना ही है; कोई माता-पिता बचा नहीं सकते।
       सद्भावी सत्यान्वेषी गृहस्थ बन्धुओं ! विवाह हेतु युवती के  पिता को ही सबसे बडी कठिनाइयाँ झेलनी होती हैं तथा युवती के वर के साथ विदाई होने तक विशेष दायित्व का वहन करना पड.ता है । युवती परिवार के लिए सिर दर्द बन जाती है कि उसकी शादी उसके योग्य वर खोज कर जितना जल्दी शादी कर दिया जाय, उतना ही जल्दी पिता (युवती के पिता) का भार हल्का मात्र ही नहीं हो जाता, बल्कि परिवार, गाँव, समाज का भी भार हल्का हो जाए, क्योंकि युवती तो मात्र अपने पिता के ही सिर का भार एवं दर्द नहीं होती है बल्कि घर-परिवार, गाँव, समाज के भी सिर का भार एवं सिर का दर्द होती है; जिसमें पिता प्रधान है।
   
       विवाह पारिवारिक एवं साँसारिक जीवन में एक महत्वपूर्ण साँस्कारिक पद्धति है जिसके अन्तर्गत एक युवक-युवती का जोडा परिणय-पद्धति से वर-वधू रूप होता हुआ पति-पत्नी के रूप में पहुँचता है । विवाह कोई युवक-युवती का मनमाना सम्बन्ध नहीं होता है, बल्कि एक विशुद्ध ही साँस्कारिक-पद्धति का नाम ही विवाह है; जिसके अन्तर्गत युवक-युवती दोनों एक-दूसरे के परिणय-सूत्र में बँध कर शारीरिक, पारिवारिक एवं सामाजिक या साँसारिक रूप में आ जाते हैं । विवाह- पद्धति के अन्तर्गत कुछ साँस्कारिक रश्में होती हैं जिसको प्रायः विवाह के पूर्व पूरा करना होता है । हालाँकि ये रश्में भी विवाह-पद्धति के अन्तर्गत ही आती हैं । अब इसे देखें ।
वराच्छा
    सद्भावी सत्यान्वेषी गृहस्थ बन्धुओं ! वराच्छा विवाह की पहली साँस्कारिक पद्धति है जिसके अन्तर्गत युवती के योग्य युवक की खोज प्रायः हर स्तर पर समकक्ष का किया जाता है और अगुवा (दोनों के बीच मेल-सम्बन्ध कराने वाला) के माध्यम से जब युवक का पता लग जाता है, तब पंडित व ठाकुर जाते हैं देखने के लिए कि होने वाले वर-वधू की जोड़ी मेल-मिलाप के योग्य है कि नहीं अर्थात् युवती के योग्य युवक है या नहीं । पण्डित व ठाकुर (नाई) के द्वारा जब योग्यता यानी समकक्षता का समर्थन मिल जाता है तत्पश्चात् पिता-भाई आदि प्रमुख व्यक्ति अगुवा, पण्डित, ठाकुर के साथ पांच-सात या क्षमतानुसार कम-वेश युवक  के यहाँ जाते हैं तथा जाँच-पड़ताल के पश्चात् यदि युवक युवती के योग्य मिल गया, तब विवाह की पहली रश्म पूरी की जाती है, जिसका नाम ‘‘वराच्छा’’  यानी युवति के समकक्ष या श्रेष्ठ अच्छा युवक मिल  गया है, वधू के लिए वर अच्छा है । इसी रश्म में ही अगली दूसरी रश्म तिलक की तथा विवाह की तिथि वगैरह ज्योतिष गणना के आधार पर ‘‘लगन पत्रिका’’ की दो कापी बनती है, जिन पर दोनों पक्ष के मालिकों को एक-दूसरे द्वारा हस्ताक्षरित एक-एक कापी (प्रति) मिल जाया करती है । इस लगन पत्रिका का भाव यह होता है कि दोनों पक्ष अगुवा तथा पण्डित के समक्ष अपने-अपने बचनों के माध्यम से विवाह हेतु बँध जाते हैं कि इस लगन पत्रिका की तिथि के पश्चात् वर पक्ष कोई दूसरे से रिस्ता न जोड.ने लगे तथा वधू-पक्ष भी बिना कोई कारण बताये दूसरा रिस्ता या सम्बन्ध न कायम करने लगे । लगन पत्रिका इसी का सबूत होता है ।
 तिलक

       सद्भावी सत्यान्वेषी गृहस्थ बन्धुओं ! विवाह पद्धति में दूसरे क्रम में तिलक रस्म होती है । इस तिलक के रस्म के अन्तर्गत युवती यानी वधु पक्ष के दस-बीस अथवा क्षमतानुसार अधिक-कम भी प्रायः जितने भी समीपी हित-नात व गाँव- पड़ोस के महत्वपूर्ण व्यक्ति सम्पर्की होते हैं, प्रायः सभी ही इस (तिलक) वाले वर पक्ष के यहाँ बर्तन आदि सेवा-सहयोग देने तथा इन समीपी बन्धुओं को भी जाँच-पड.ताल का शुभ अवसर देकर बाकी युवक-युवती के मेल यानी वर-वधू के समकक्षता का राय-विचार लेना तथा साथ ही साथ कन्या के भाई द्वारा वर को टिका (तिलक) ललाट पर देना होता है, जिसका अर्थ और भाव दोनों ही होता है कि अब वर-वधू का सम्बन्ध स्थिर हो गया यानी टिक गया । अब परिस्थिति विशेष के अतिरिक्त यह सम्बन्ध, जो अब वधू पक्ष  द्वारा वर पक्ष को टिका देकर भाव स्थिति से विश्वास दिया कि हम लोग अब टिका दे दिये यानी अपने स्थिरता का भाव आप को दे दिया, अब आप विवाह हेतु बारात लेकर हमारे (वधू पक्ष के) यहाँ सहर्ष अपनी क्षमतानुसार अपने हेतु खुशहाली के साधनों (बाजे-गाजे) के साथ, हाथी-घोड़े आदि के साथ आ सकते हैं, जितने लोग एवं साधन आपके साथ हमारे यहाँ आयेंगे, हम लोग भी सहर्ष खुशी-खुशी आप लोगों का सेवा-स्वागत अपने क्षमतानुसार  करेंगे।
 तिलक का वास्तविक रूप
       सद्भावी सत्यान्वेषी गृहस्थ बन्धुओं ! ‘‘तिलक’’ का अर्थ -भाव होता है युवती अपने पति (युवक) के साथ टिक गयी अथवा ठहर चुकी है । अब ये दोनों ही पूरी जिन्दगी एक-दूसरे के अपनत्त्व में एकत्त्व भाव में चाहे दुःखद जो भी स्थिति हो बने रहेंगे । सर्वप्रथम सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ही आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म सहित ही परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्द रूप अलम्-गाॅड में ही स्थित था । उन्हीं में से ही सर्वप्रथम आत्म ज्योति रूपा आदि शक्ति-शिव शक्ति-ब्रह्म शक्ति तत्पश्चात् क्रमशः ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति हुई और जीव उसी में भरम-भटक कर ‘जनमत-मरत दुःसह दुःख होई’ नामक यातनाओं से मोक्ष पर्यन्त गुजरते रहा। उसी दुःसह यातना से ‘मुक्ति’ हेतु जीव भगवान् से पुकार करने लगा जिससे मानव योनि मिली कि भगवत् प्राप्त होकर शरणागत होकर एकत्त्व बोध रूप में प्रभु के यहाँ सदा-सर्वदा के लिए ‘टिक’ -ठहर जाना था । जो टिक गया वह पहचान रूप अपने सिर-माथे-ललाट पर दोनों आँखों के मध्य कि हम जान-देखकर ठहरे हैं -- टिका करने लगे। उसी का एक श्रेणी नीचे वाला ब्रह्म-आत्मा वाला और सबसे निचले श्रेणी शरीर वाला तिलक हुआ। एक साँस्कारिक ‘टिका’ है जिसका वास्तव में प्रयोग जीव का आत्मा से मिलन तथा उस मिलन का टिकाऊ (स्थिर) बनाये रखने वाली बात थी, जिसमें कि गर्भस्थ शिशुस्थ जीव स्थिर शान्ति और आनन्दानुभूति के साथ ही साथ ब्रह्म-ज्योति अथवा आत्म-ज्योति अथवा दिव्य ज्योति रूप ब्रह्म का साक्षात्कार करता रहता है, जहाँ शिशु को शरीर भाव न होकर ब्रह्म भाव रहता था, जिससे जीव स्थिर शान्ति के साथ ही साथ निरन्तर अखण्ड वृत्ति में रहता हुआ हमेशा ही आनन्द विभोर रहता है। उसी मूलाधार स्थित जीव का भूमध्य क्षेत्र स्थित आज्ञा-चक्र में मिलन तथा स्थिर यानी टिकाऊ मिलन बना रहे, इसके लिए अखण्ड वृत्ति (अजपा-जप) की क्रिया अनवरत होती रहती थी, उसी टिकने वाली जीव भाव स्थिति को बाद में पूजा-पाठ, अर्चना-उपासना करने वाले पुजारी उपासक  तिलक-चन्दन उसी आज्ञा-चक्र पर बाह्य ललाट पर देने या टिका करने लगे। जीव का ब्रह्ममय भाव में मूलाधार-चक्र से आकर आज्ञा-चक्र में टिकना, जीव हेतु अति महत्वपूर्ण भाव-स्थिति थी, जो उस ब्रह्ममय शरीर को महान् यानी आध्यात्मिक महात्मा, योगी-सिद्ध, महापुरुष आदि बनाती रहती थी और आज भी जो शरीरस्थ जीव अपने शरीर-सम्पत्तिमय से हटकर ब्रह्म साक्षात्कार करता हुआ मूलाधार चक्र से ऊध्र्वमुखी गति-वृत्ति से आज्ञा-चक्र में अपने को टिका दे तो उसे योगी-यति, सिद्ध-महात्मा तथा महापुरुष बनते देर नहीं, परन्तु मूलाधार स्थित जीव को आज्ञा-चक्र स्थित ब्रह्म-ज्योति के साथ टिकाता नहीं है; उसी का सकल रूप यह युवती के शरीर को उसके मूल आधार रूप जन्म-स्थान से लाकर युवक के यही पति (युवक शरीर) के आज्ञा चक्र में टिकाने की व्यवस्था ही ‘तिलक’ हो गया है । 
विवाह संस्कार
      सद्भावी सत्यान्वेषी बन्धुओं ! विवाह परम्परागत पैतृक मान्यताओं के अनुसार सहकर्म एवं सहभोग हेतु युवक-युवती का साँसारिक सम्बन्ध है । पुनः विवाह की परिभाषा एक दूसरे शब्दों में भी देखें --‘‘विवाह परम्परागत पारिवारिक, सामाजिक रूप साँसारिक व्यवस्था को कायम रखने एवं विकसित करने हेतु युवक-युवती का साँस्कारिक सम्बन्ध है, जो सम्बन्धित पति-पत्नि को सह-कर्म एवं सह-भोग हेतु अग्रसारित करता
  है ।’’  
       सद्भावी बन्धुओं ! वराच्छा और तिलक ही रश्म पूरी होने के पश्चात् अब वर-पक्ष के द्वारा प्रायः समस्त हित-मित्र, सगा-सम्बन्धी, गाँव-पड.ौस, पवनी (सेवक वर्ग) आदि के साथ मय बाजे-गाजे, नाच-तमाशा के साथ सज-धज कर वर के साथ बारात वधू के यहाँ ले जायी जाती है । उधर वधू-पक्ष के यहाँ वर-सहित बारात की अच्छी से अच्छी स्वागत-सेवा हेतु नाना प्रकार के मिष्ठान्न-पकवानों एवं अन्य स्वागत करने आदि की तैयारियाँ भी पूरे हर्ष के साथ अपने-अपने क्षमता भर की जाती हैं। बारात वर के साथ जैसे ही वधू पक्ष के यहाँ पहुँचती है, वधू-पक्ष के लोग वर सहित बारात का सहर्ष स्वागत करने हेतु गाँव से बाहर कुछ दूर जिधर से बारात गाँव में प्रवेश करनी होती है, उधर आकर बारात का स्वागत करते हुए अपने दरवाजे पर ले जाते हैं । इस प्रकार वर-सहित बारात अपने हाथी-घोड़े, बाजे-गाजे, नाना प्रकार के पड़ाके-फुलझर्रियों आदि के साथ वधू पक्ष के दरवाजे पर पहुँच जाती है, जहाँ पर कि मकान के मुख्य दरवाजे पर एक छोटा सा मण्डप बना होता है, जिसमें पूजोपचार सम्बन्धी प्रायः सभी मांगलिक सामग्रियाँ मय कलश आदि के साथ पूरे सजावट के साथ पहले से ही तैयार रखी रहती हैं; जहाँ पर कन्या का पिता वर को भगवान् विष्णु का रूप मानता हुआ आचार्य पण्डित द्वारा साँस्कृतिक रूप से मन्त्रों के साथ उन मांगलिक सामग्रियों से वर की पूजा-अर्चना करते हुए चरण-स्पर्श कर प्रणाम करते हैं, जिस रश्म  को ‘‘द्वार पूजा’’ कहा जाता है । इसके तुरन्त पश्चात् ही वर-सहित पूरे बारात को विधिवत् सेवा-सत्कार के रूप में जलपान कराया जाता है। इस प्रकार वधू पक्ष के यहाँ की पहली रश्म पूरी होती है । इसके पश्चात् दूसरे रश्म ‘‘कन्या-निरीक्षण’’  की तैयारी कुछ समय पश्चात् ही प्रारम्भ हो जाती है । विवाह प्रक्रिया के अन्तर्गत यह रश्म भी अपना एक अलग ही महत्त्व रखती है ।
 
‘वर’ विष्णु कदापि नहीं
     सद्भावी सत्यान्वेषी बन्धुओं ! दुनिया में क्या ही यह एक अजीब विडम्बना देखने-सुनने को मिल रही है कि हँसी भी आती है और भ्रमपूर्ण फैले हुए मान्यताओं एवं परम्पराओं को देख कर तरस भी आता है कि दुनिया वाले भगवान् द्वारा मिली हुई बुद्धि को ‘ताक’ पर रख कर मनमाने आचरण-व्यवहार करने-कराने लगते हैं, जिसमें फँस-फँसाकर बर्बाद होते हुए विनाश के तरफ तेजी से बढ़ते जा रहे हैं, तब भी जानते, देखते तथा समझते-बूझते हुए भी सुधरने की कोशिश नहीं कर-करा रहे हैं । हाय रे दुनिया वालों ! शैतान ने तुम लोगों  की मति-गति को क्या-क्या कर डाला है कि अपनी हो रही बर्बादी तथा आने वाले विनाश को नहीं देख पा रहे हो । अरे  जड़ी एवं मूढ़ों ! अब से भी तो चेत कि तुम किधर को जा रहे हो।
    सद्भावी सत्यान्वेषी गृहासक्त बन्धुओं ! भगवान् द्वारा दिये गये विवेक-बुद्धि में से नहीं पूरा-पूरा तो कम से कम थोड़ा भी तो याद करके उस विवेक-बुद्धि को काम में लगाओ, यानी अपने जीवन के कदम को आगे बढ़ते हुए थोड़ा भी तो विवेक-बुद्धि को स्मरण रखते हुए सूझ-बूझ से कदम आगे रखो, ताकि तेरा अगला कदम तुझे आबाद के तरफ ले जा रहा है या बर्बाद के तरफ  । तेरा जीवन उत्थानपरक है अथवा पतनोन्मुखी, इतना तो कम से कम देखने की कोशिश   करो । ये शारीरिक-पारिवारिक-साँसारिक जन जो खुद  अधःपतन रूप अधः पतित बन चुके हैं, खुशी-खुशी आप को भी वही (अधःपतित ही) बनाने पर तुले हैं ।
       सद्भावी बन्धुओं ! यहाँ अति विचारणीय एवं सूझ-बूझ से काम लेने वाली सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि दोनों समधी (युवक-युवती के पिता) यानी समान बुद्धि वाले हैं, सम (समान) धी (बुद्धि) समधी (समान बुद्धि वाले) । किस मामले में समान बुद्धि ? तो जवाब यह नहीं है कि दोनों की बुद्धि एक समान हर मामले एवं क्रिया-कलाप में ही समान है, ऐसा कदापि नहीं है । तब क्या  है ? तो यहाँ पर मात्र युवक-युवती दोनों को एक-दूसरे से आपस में जीवन पर्यन्त तक के लिए फँसा-फँसा कर अपना भार या बोझ हल्का करने के ‘‘कार्य विशेष’’ में ही समान बुद्धि (समधी) हैं क्योंकि दोनों मिलकर ही दोनों को राजी-खुशी रूप  फँसाहट का पर्दा रखते हुए एक-दूसरे को बन्धन में ऐसा बांधते हैं कि अब आप दोनों को अपने से पृथक् एक अलग से वासनात्मक सम्बन्ध को मध्य में रखते हुए आपस में अपनत्व के बन्धन में बांधकर अपने दोनों (समधी) आप दोनों से (वर-वधू से) स्वतन्त्र हो जाते हैं । अब आप दोनों आपस में फँस-फँसाकर जब तक जवानी का जोश  (अधिक से अधिक 5 वर्ष तक) तो यह बन्धन आप को लगेगा कि आप क्या ही आनन्द प्राप्त कर लिए हैं परन्तु 5 वर्ष तक भोगने के बाद तो यह विवाह और यह भोग, वह विपत्ति, वह समस्याओं का जाल काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, ममता, मोह, माया, वासना आदि समस्त आपदाओं की साक्षात् मूर्ति रूप औरत को पाकर कोई चाहे कि स्थिर, शान्ति, चैन से तथा आराम-विश्राम से, शान्ति और आनन्द को प्राप्त  कर कैसे सकता है ? कदापि नहीं प्राप्त कर सकता है । क्योंकि यह जो काम, क्रोध, लोभ, मोह,  अहंकार, ममता, माया वासना आदि समस्त अवगुणों की खान रूप स्त्री आपको अमन-चैन तथा शान्ति और आनन्द की अनुभूति कैसे  पाने दे सकती है ? कदापि आपको चैन नहीं मिलेगा । दोनों समधी आप दोनों  (युवक-युवती) को फँसाने के अन्तिम स्थिति तक पहुँचा दिये । युवती का  पिता युवक को विष्णु तथा युवक का पिता युवती को लक्ष्मी की उपाधि देकर, मात्र विवाह की रश्म भर ही, ये लोग आप दोनों को विष्णु व लक्ष्मी मानेंगे । विवाह के पश्चात् तो पुनः वही बेटा  और बहू तथा बेटी और दामाद ही कहेंगे। थोड़े देर के लिए भी तो आप दोनों सोचिए कि क्या आप विष्णु और वह लक्ष्मी है ? और यदि है तो पहले (विवाह से) और विवाह के बाद आप लोग विष्णु-लक्ष्मी क्यों नहीं रहे ? मात्र फँसाहट ही है । असलियत का नामोनिशान नहीं। विवाह कर रहे हैं तो 5 साल बाद आपको भी पता चल ही जाएगा।
 
कन्या निरीक्षण
         सद्भावी सत्यान्वेषी  बन्धुओं ! विवाह रश्म के अन्तर्गत द्वार पूजा के पश्चात् होने वाली यह दूसरी प्रमुख रश्म है, जिसमें वर के बड.े भाई के साथ बारात के प्रमुख-प्रमुख व्यक्ति जो प्रायः समीपी होते हैं, कन्या निरीक्षण हेतु मकान के आंगन में बने मण्डप में जहाँ पर पूजोपचार के प्रायः सभी मांगलिक सामग्रियाँ, आचार्य, पण्डित, नाई तथा परिवार-रिश्तेदार और गाँव-पड़ौस के लोग (स्त्री- पुरुष, लड.के-लड.कियाँ) आदि रहती हैं, जहाँ पर बीच में एक पर्दा टँगा होता है, जिसके आड. में वधू अपनी सहेलियों एवं नाईन आदि द्वारा लाकर पर्दे के लोत (आड.) में  बैठायी जाती है और आचार्य-पण्डित बड़े भाई को रश्म के विधि- विधानों के अनुसार कन्या निरीक्षण कराते हैं । तत्पश्चात् उसी भाई  द्वारा कन्या को अपने साथ लाये हुए आभूषण-वस्त्र आदि सुपुर्द कर देते हैं । द्वार पूजा तथा यह कन्या-निरीक्षण आदि की रश्में स्त्रियों आदि के मांगलिक गीतों के अन्दर ही होते हैं ।
 विवाह
       सद्भावी सत्यान्वेषी गृहासक्त बन्धुओं ! कन्या निरीक्षण के पश्चात् विवाह की मुख्य रश्म प्रारम्भ हो जाती है जिसमें वर वधू के यहाँ आंगन वाले मण्डप को जाता है, जहाँ पर विवाहोपचार हेतु सारी व्यवस्थाएँ आचार्य-पण्डित जी द्वारा व्यवस्थित करायी गयी होती है और मांगलिक  गीतों के बीच विवाह-पद्धति के अनुसार अग्नि को साक्षी के रूप में प्रतिष्ठित कर अखण्ड-दीप ज्योति जला कर जल कलश पर रखी रहती   है । कन्या के माता-पिता कन्या दान हेतु अपनी कन्या को वर को दान करने हेतु मण्डप में उपस्थित रहते हैं । आचार्य-पण्डित जी द्वारा विवाह-पद्धति से कन्या दान की प्रक्रिया मांगलिक गानों के बीच मन्त्रों के उच्चारण के साथ पूरी करते-कराते हैं । पुनः वर द्वारा वधू के मांग में  सिन्दूर-दान की प्रक्रिया भी पूरी करा दी जाती है और वर-वधू को विवाह-बन्धन रूपी गाँठ जोड. कर मण्डप-केन्द्र में रखे हुए शुभ कलशादि से युक्त अग्नि आदि आह्वानीय देवता के समक्ष आचार्य-पण्डित जी के मन्त्रोपचार के साथ ही विवाह-वेदी के चारों तरफ आगे-आगे वर और पीछे-पीछे वधू को क्रमशः सात चक्र यानी सात फेरी (सप्त पदी) कराते हुए प्रत्येक चक्र (फेरी) के पश्चात् वर-वधू दोनों को एक-दूसरे के व्यवहार को जीवन-पर्यन्त निभाते हुए सह-कर्म, सह आचरण-व्यवहार एवं सह-भोग हेतु बचन लेना-देना (सत्य-प्रतिज्ञा) करना पड.ता है, जिसके हेतु अग्नि को साक्षी रखा जाता है । यह क्रम बचन लेते-देते हुए सात चक्र यानी सात फेरी करायी जाती है, जिसको सप्त पदी कहा जाता है।
       विवाह पद्धति के अन्तर्गत सप्तपदी को एक विशेष महत्व दिया जाता है । हिन्दू कानून तो सप्तपदी के महत्व को इतना ऊँचा स्थान दिया है कि सही-सही यदि न्यायालय में प्रमाणित हो जाय कि सात चक्र नहीं, बल्कि छः चक्र ही लगवाया गया था, तो विवाह माना ही नहीं जा सकता है, ऐसे  विवाह को कानूनी मान्यता भी नहीं मिल सकती है । अब आप इससे सप्तपदी के महत्व का स्वयं आंकलन कर सकते हैं ।
       विवाह पद्धति में ही पाणि-ग्रहण संस्कार भी होता है, जिसके अन्तर्गत वर के हाथ पर वधू का हाथ रखकर वधू के भाई से शुद्ध जल-पात्र से दोनों के नीचे ऊपर रखे गये तैलधारावत् वृत्ति से जल को गिराया जाता है जिसमें यह सावधानी बरतनी पड.ती है कि धारा खण्डित न हो सके जिसका अर्थ भाव होता है कि विवाह सम्बन्ध अखण्ड रहे । इस प्रकार विवाह-पद्धति  होती है ।

 अन्य प्रक्रियाएँ
    सद्भावी सत्यान्वेषी गृहस्थ बन्धुओं ! विवाह के अन्तर्गत तो अन्य अधिकाधिक प्रक्रियाएं होती हैं, जिसमें मुख्य-मुख्य को ही यहाँ प्रस्तुत किया गया है । आप बन्धुओं से मैं अपनी सही स्थिति बतलाऊँ तो शायद आप बन्धुओं को विश्वास नहीं होगा, परन्तु असलियत यही है कि मेरी कलम इस विवाह-पद्धति रूप घोर घृणित कर्म को लिखने हेतु आगे बढ. ही नहीं पा रही है । मुझे इस वैवाहिक प्रकरण को किस तरह खींच-खाँच यानी घसीट कर आखिर तक पहुँचाना पड़ा है, इस कठिनाई को हम ही समझ पा रहे हैं । आपको विश्वास ही नहीं होगा कि ‘‘इस प्रकरण को लिखने में मेरी इस कलम को भी कितना कठिनाई उठाना पड. रहा है तथा हाथ और मस्तिष्क को भी इस विषय को लिखने में जितनी घृणा एवं आश्चर्य जनक कष्ट सहन करना पड. रहा है । इन परेशानियों के कारण  अफनाकर किसी-किसी प्रकार इस प्रकरण को खींच-खाँच यानी घसीट कर यहाँ तक ले आया हूँ । लग रहा है कि विवाह के अन्तर्गत होने वाले अन्य भोज-भात, खीर-खाने, जनवासा तथा मिलन और विदाई आदि की प्रक्रियाएँ लिखना या आपके समक्ष प्रस्तुत करना इस सद्ग्रन्थ को घृणित बनाना ही होगा । हमसे अब आगे इस प्रकरण पर नहीं बढा जा रहा है ।
 उपसंहार
      मैं अपने दिल की बात आपसे खुल कर कह-लिख रहा हूँ कि मेरी परेशानी इस प्रकरण को लिखने में कितनी हुई तथा इस समय तक मैं कितना परेशान हो सका हूँ कि कह नहीं सकता हूँ । मेरे इन शब्दों से मेरे भाव को पकड.ने की कोशिश करें । मैं तो भगवान् से बार-बार, हजार बार, पुनः बार-बार अनन्त बार निवेदन करूँगा कि हे प्रभु ! हे परम प्रभु मुझे ऐसे घोर-घृणित प्रसंग (वैवाहिक प्रकरण) जैसे लिखने से बचाये रख, तो आपकी हम पर विशेष कृपा ही हमें महसूस होगी ।  हे परम प्रभु ! मुझे ऐसे घृणित प्रसंग दिमाग में न लाने पडे, यह आप ही के कृपा से सम्भव हो पाया है। हे परम प्रभु ! इस क्षुद्र प्रकरण को यहाँ पर प्रस्तुत करने में जो मुझे कठिनाई एवं परेशानी उत्पन्न हुई है और अभी-अभी जो हो रही है इससे एक मात्र तू ही हमें राहत दे दिला सकता है । तेरे सिवाय हमारा है ही कौन कि जिससे मैं अपनी इस दुःख व्यथा को सुनाऊँ कि इतना गंदा, इतना घृणित, इतना पापमय इस वैवाहिक प्रकरण को प्रस्तुत करने में मेरे दिल व दिमाग में जो इस घोर घृणित एवं अधःपतित समाज की चर्चा करते हुए गन्दगी एवं घृणा के जो भी भाव समाए हों, हे प्रभु! हे परमप्रभु उससे मुझे उबार । क्योंकि न तो मेरा कोई और है और न तो मुझे आपके सिवाय किसी और की आवश्यकता ही  है । मेरा बार-बार प्रार्थना है कि इससे  उबार तथा  ऐसे घृणित प्रसंग रखने-लिखने से मुझे बचा । दुनिया का यह घोर घृणित एवं अधः पतित रूप गृहासक्त गृहस्थ के ऐसे विधानों को जिसमें जीव को आप परम प्रभु से तथा आप परमात्मा या परमब्रह्म के नित्य सम्पर्क सेवा में रहने वाले आत्मा या ब्रह्म से बिछुडा कर विनाशी अधः पतित रूप घोर घृणित विधानों से आपस में शरीरों में फँस-फँसा रहे हैं और खुशी मनाते  हुए । हाय रे ! मन मतंगों, परम प्रभु  परमात्मा तथा आत्मा से हटकर शरीरों में फँस रहे हो । 

संत ज्ञानेश्वर  स्वामी सदानन्द जी परमहंस