विवाह का वास्तविक रूप

विवाह का वास्तविक रूप
      
     सद्भावी सत्यान्वेषी गृहस्थ बन्धुओं ! आइये यहाँ पर विवाह के वास्तविक रूप पर विचार-विमर्श करते हुये इसकी यथार्थता को समाज में प्रस्तुत किया  जाय । विवाह अज्ञानी, जढ़ी, मूढ़, मोह-माया जाल में आसक्त अधःपतित रूप गृहासक्तों द्वारा फँसने-फँसाने वाली एक घोर घृणित प्रक्रिया है । जिसकी आध्यात्मिक महापुरुष तो घोर घृणा के रूप में निन्दा करते ही रहे हैं, तात्त्विक सत्पुरुष रूप भगवदवतार भी खुले दिल से घोर घृणित भाव में निन्दा किये वगैर नहीं रह सके ।
         इस प्रकार विवाह को सृष्टि का कर्ता-भर्ता-हर्ता रूप तीनों का संयुक्त रूप सर्वशक्ति सत्ता-सामथ्र्य रूप खुदा-गाॅड-भगवान् के अवतार भी घृणित भाव में घोर निन्दा किये वगैर नहीं रह सके तथा अपने परम भक्तों-सेवकों-प्रेमियों को भी इस घृणित कार्य से बचाये रखे । उनके द्वारा प्रदत्त शापपूर्ण (नारद मोह प्रसंग) कष्टों को भोगे, फिर भी उन्हें बचाये।
       विवाह के सम्बन्ध में भगवदवतार श्री रामचन्द्र जी के ‘मत’ को जो श्री रामचरित मानस के अरण्य काण्ड के अन्तिम दोहा-चैपाइयों में उल्लिखित है, यहाँ पर प्रस्तुत किया जा रहा है। आप पाठक बन्धुओं से साग्रह निवेदन है कि इस प्रकरण को बहुत ही सूझ-बूझ के साथ दो बार, तीन बार, चार बार, पाँच बार, यहाँ तक कि इसे तब तक पढ़ते और समझते रहें जब तक कि यह पूरा का पूरा समझ में न आ जाय । तत्पश्चात् व्यवहार जगत में देखें कि क्या यह अक्षरशः सत्य ही नहीं है ? तो आपको दिखायी देगा कि अक्षरशः शत-प्रतिशत व्यवहार जगत में यह बात व्यवहरित है। तत्पश्चात् बन्धुओं ! अपना तथा समाज का खुले दिल से कल्याण करने हेतु सुधार और उद्धार हेतु इस ‘‘मत’’ का खुले दिल से प्रचार-प्रसार करते-कराते हुये, परमब्रह्म तथा ब्रह्म से बिछुड़ेमाया-मोह-ममता-वासना के साथ ही साथ काम-क्रोध-लोभ-अहंकार आदि समस्त अवगुणों के खान रूप कामिनी (स्त्री) से तथा जढ़ता एवं मूढ़ता मय बनाने-बनने वाले सम्पत्ति से जीव को मोड़ कर पुनः उस जीव को ब्रह्म तथा परम प्रभु रूप परमब्रह्म से जोड़ कर शरीर-सम्पत्तिमय रखने के स्थान पर ब्रह्ममय एवं अनन्य भाव से भगवद् शरणागत रहें-करावें। यही मानव जीवन का चरम और परम लक्ष्य भी है कि माया-मोह में फँसे जीवों को मुक्त करावें । विवाह के वास्तविकता की जानकारी करना हमारे और आप सभी बन्धुओं के लिये यह समझना आवश्यक है कि ‘‘यह वह घोर घृणित माया-बन्धन है जो अधःपतन को ले जाती है।’’ विवाह शब्द एक महान् अशुभ, घोर घृणित एवं घोर निन्दित शब्द एवं पद्धति है, जिसकी आध्यात्मिक महापुरुषों ने आदि काल से ही आलोचना-निन्दा करते हुए अपने भक्त, सेवक, प्रेमियों को इससे दूर रखते हुए उन्हें बचाते तो आये ही हैं, साथ ही साथ भगवदवतार रूप भगवान् श्रीविष्णु जी भी इसकी निन्दा करने से अपने को रोक नहीं पाये। भगवदवतार रूप श्रीराम जी का प्रकरण अब आप सूझ-बूझ के साथ यहाँ देखें ।
  श्री राम जी द्वारा नारद जी का शंका - समाधान
(मानस से):- 
अति प्रसन्न रघुनाथहिं जानी । पुनि नारद बोले मृदु बानी ।।
राम जबहिं प्रेरेउ निज माया । मोहेहु मोहि सुनहु रघुराया ।।
तब विवाह मैं चाहऊँ कीन्हा । प्रभु केहि कारन करै न दीन्हा ।।
सुनु मुनि तोहि कहऊँ सहरोसा । भजहिं मोहि तजि सकल भरोसा।।
करऊँ सदा तिन्ह कै रखवारी । जिमि बालक राखइ महतारी ।।
गह शिशु बच्छ अनल अहि धाई । तहँ राखइ जननी अरगाई ।।
प्रौढ़ भएँ तेहि सुत पर माता । प्रीति करइ नहिं पाछिलि बाता ।।
मौरे प्रौढ़ तनय सम ज्ञानी । बालक सुत सम दास अमानी ।।
जनहि मोर बल निज बल ताही । दुहु कहँ काम क्रोध रिपु आही।।
यह विचारी पंण्डित मोहि भजहिं । पाएहुँ ग्यान भगति नहीं तजहिं।।
 दोहा -   काम क्रोध लोभादि मद प्रबल मोह कै धारि ।                 
      तिन्ह महँ अति दारुन दुखद माया रूपी नारि ।। 43।।
सुनि मुनि कह पुरान श्रुति सन्ता । मोह विपिन कहुँ नारि वसन्ता।।
जप तप नेम जलाश्रम झारी ।  होई ग्रीषम सोषइ सब नारी ।।
काम क्रोध मद मत्सर भेका । इन्हहि  हरषप्रद  बरषा एका ।।
दुर्वासना  कुमुद  समुदाई  । तिन्ह कहँ सरद सदा सुखदायी ।ं।
धर्म सकल सरसीरुह वृन्दा ।  होई हिय तिन्हहि दहई सुख मंदा।।
पुनि ममता जवास  बहुताई । पलुहइ नारि सिसिर रितु पाई ।।
पाप उलूक निकर सुखकारी । नारि  निविड़ रजनी अँधिआरी ।।
बुधि बल शील सत्य सब मीना । वनसी सम त्रिय कहहिं प्रबीना।।  
दोहा - अवगुन मूल सूलप्रद प्रमदा सब दुख खानि ।                       
    ताते कीन्ह निवारन मुनि मैं यह जीयँ जानि ।। 44 ।।
सुनि रघुपति के बचन सुहाए । मुनि तन पुलक नयन भरि आए ।।
कहहु कवन प्रभु कै असि रीति । सेवक पर ममता अरु प्रीति ।।
जे न भजहिं अस प्रभु भ्रम त्यागी । ग्यान रंक नर मंद अभागी ।।
        अर्थ:- रघुनाथ (श्री राम) जी को अति प्रसन्न जानकर नारद जी फिर से मधुर मधुर वाणी में बोले कि ‘‘हे रघुनाथ जी (राम जी) जब अपनी माया से प्रेरित करते हुए मुझे मोहित कर दिये थे तब मैं उत्प्रेरित होकर विवाह की चाह करने  लगा । तो हे प्रभु ! वह कौन सा कारण था कि जिसके चलते आप ने हमें विवाह नहीं करने दिया । हे मुनि यदि आप पूछते हैं तो आपको विश्वास दिलाते हुए कह रहा हूँ कि जो मेरा अनन्य भक्त-सेवक-प्रेमी सभी आशा-तृष्णा यानी भरोसा को छोड़ कर केवल मेरे भजन में लगा रहता है । अपने उस भक्त-दास-प्रेमी की सदा उसी प्रकार से रखवारी करता रहता हूँ जिस प्रकार अपने छोटे से बालक की रखवारी उसकी माता करती है । जिस प्रकार शिशु और बछड़ा आग और साँप को दौड़ कर पकड़ने जाते हैं तो माता और गाय उनकी आग और साँप से रखवारी करती है यानी उन्हें बचा लेती है, ठीक उसी प्रकार मैं भी अपने अनन्य भक्तों, अनन्य सेवकों तथा अनन्य प्रेमियों को सदा रखवारी करते हुये बचा लेता हूँ । जिस प्रकार प्रौढ़ यानी युवा हो जाने पर माता अपना वह प्रेम और रखवाली जो शिशु की करती थी, अब नहीं करती । वैसे ही मेरे प्रौढ़ (युवा) पुत्र के समान ज्ञानी हैं तथा बालक पुत्र के समान मेरा निरभिमानी (अभिमान रहित) दास होता है । मेरे जनों (दासों) को तो केवल मेरा बल ही का भरोसा होता रहता है, अपना कुछ नहीं । परन्तु ज्ञानी का तो अपना बल होता रहता है । इन दोनों के पास ही काम और क्रोध रूपी शत्रु कैसे आ सकता है अर्थात् नहीं आ सकता है । इसी के विचार से पण्डित (विद्वत्) जन भी मेरा ही भजन करते रहते हैं, ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् भी मेरी भक्ति को नहीं छोड़ते हैं ।
       काम, क्रोध, लोभ, मद आदि मोह के शक्तिशाली(हथियार) के धार के रूप में है । इन सभी के बीच जो सबसे अधिक कष्ट देने वाला दुःख माया रूपी स्त्री होती है । हे नारद मुनि ! सुनिये मैं आप से बतला रहा हूँ कि संत, वेद, पुराण आदि बतलाते-कहते हैं कि यदि मोह को जंगल कहा जाय, तो उसके पल्लवित पुष्पित होने-करने के लिये स्त्री बसन्त ऋतु के समान होती है । अर्थात् स्त्री सदा ही मोह को नये-नये रूप देते हुये फँसाया करती है । जप-तप-व्रत-नेम आदि को यदि झाड़ी मानते हैं तो औरत (स्त्री) को ग्रीष्म ऋतु समझें अर्थात् ग्रीष्म ऋतु जिस प्रकार झाडि़यों के रसों को सुखा देती है, ठीक स्त्रियाँ जप-तप, व्रत-नेम, पूजा-पाठ, यम-नियम आदि के विधि-विधानों को चूसकर यानी मोह-माया- ममता-वासना लोभ आदि में जकड़ कर सबके महत्व को समाप्त करा देती है, सुखा देती है । स्त्रियाँ इनकी शोषिका हैं । काम-क्रोध-मद-मत्सर आदि को यदि टर्र-टर्र करने वाला मेंढ़क मानते हैं, तो स्त्री को हरष प्रदान यानी खुशहाली प्रदान करने वाली वर्षा जानें । अर्थात् जिस प्रकार वर्षा मेंढ़क को खुश कर देती है, ठीक उसी प्रकार स्त्री सम्पर्क से काम-क्रोध-मद-मत्सर आदि को शरीर में खूब खुशी होती है । यानी स्त्रियों से सदा ये शरीर में बढ़ते रहते हैं । दुर्वासना  को यदि कुमुद का फूल मानें तो स्त्रियों को शरद ऋतु जानें, जिसमें कुमुद काफी सुख प्राप्त करती है । अर्थात् जिस प्रकार शरद ऋतु को पाकर कुमुद (फूल) खूब खिल जाती है यानी सुख प्राप्त करती है, ठीक उसी प्रकार स्त्रियों से दुर्वासना को खूब खुशी मिलती है यानी स्त्रियों  के सम्पर्क से शरीर में दुर्वासना  बहुत ही बढ़ जाती है । सब धर्म को यदि आप खिला हुआ कमल वृन्द मानते हैं तो स्त्रियों को उसको जला देने वाला हिमयानी ओला-पाला समझें जो कमल वृन्द जैसे सब धर्म समूह को जला-जला कर समाप्त कर देती है । अर्थात् स्त्रियों के सम्पर्क से मानव के सब धर्म पर ही काम-क्रोध-ममता-मोह-वासना-दुर्वासना रूपी ओला-पाला से सब धर्म जल जाते हैं । ममता को यदि जवास (फूल) मानते हैं तो स्त्रियों को उसको पालने-पोषने वाला सिसिर ऋतु समझें । अर्थात् स्त्रियों के सम्पर्क से दिनों दिन ममता-मोह- वासना मिलती व बढ़ती जाती है । बुद्धि, बल, शील, सत्य आदि सभी को यदि आप मछली मानते हैं तो नारी को उन मछलियों को अपने काँटों में फँसा कर विनाश कर देने वाली जानें । अर्थात् नारी (स्त्री) मनुष्य को अपने ममता-मोह- माया-वासना में फँसाकर उसके बुद्धि, बल, शील, सत्य, धर्म आदि को समाप्त करते हुए विनाश तक ठीक उसी प्रकार पहुँचा देती है, जिस प्रकार कि बंशी मछली को फँसाकर विनाश कराती है।
     इससे नारी (स्त्री) सभी अवगुणों की खान तथा सूल आदि समस्त कष्टों को भी देने वाली है। इतना ही नहीं, ये स्त्रियाँ सभी दुःखों की खान ही होती हैं । इनके सम्पर्क वाला व्यक्ति सुख चाहे तो यह तो बिल्कुल ही असम्भव बात है। इनसे सम्पर्क रखने वाले को हमेशा ही कष्ट एवं दुःख  झेलते रहना पड़ता है । हे मुनि ! यही सब मैं अपने अन्दर में जान-समझ करके ही आप को विवाह नहीं करने  दिया । इस विवाह रूप माया-मोह-ममता-वासना आदि वाली स्त्री से आप को बचाया है। ऐसा ही मेरे के अन्दर हुआ कि आप को इस विनाश से बचा लूँ ।
      सद्भावी बन्धुओं ! रघुपति श्रीराम जी के ऐसे कल्याणकारी बचन नारद जी को बहुत ही अच्छे लगे । नारद जी के आँखों में इतने बड़े इस उपकार के प्रति भावपूर्ण आँसू भर आये और नाना भाँति सेे विचार करने लगे कि कहिये न ! कि इस परमप्रभु की रीति कैसी है ! यानी कितनी अच्छी है कि सेवकों पर इस प्रकार से ममता रखकर सदा ही उसका देख-भाल अथवा रखवाली करते रहते हैं । इस प्रकार जो कोई भी ऐसे परम प्रभु का भजन नहीं करता, वह ज्ञान का कंगाल अभागा आदमी है । यानी उस मूढ़, अभागे को इतना भी ज्ञान नहीं है कि वह ऐसे परम प्रभु का अनन्य भाव-निष्ठा के साथ भजन करता रहे । यह रही आप बन्धुओं के समक्ष श्री रामचन्द्र जी महाराज का नारद जी के प्रति विवाह सम्बन्धी उपदेश।
      सद्भावी सत्यान्वेषी बन्धुओं ! भगवदवतार श्री रामचन्द्र जी महाराज के विवाह सम्बन्धी इस उपर्युक्त ‘मत’ पर भी किसी को नहीं समझ में आवे,  इतने पर भी न समझ सके तो ऐसे अज्ञानी (ज्ञानहीन) मनुष्यों के लिये अधःपतित रूप शारीरिक भाव में रहते हुए तो समस्त कष्ट एवं विपदाओं से गुजरना ही पड़ेगा । शरीर छोड़ने पर नरक में भी नित्यप्रति कठोरतम एवं घोरतम यातनाओं से ही गुजरना होगा तथा कितने कोटि बार आवागमन चक्र से मृत्यु लोक में कीट- पतंगादि योनियों से गुजरना पड़ेगा । यह वही समझेगा।
      विवाह के सम्बन्ध में भगवदवतार श्रीविष्णु जी महाराज ने भी ऐसा ही कहा है कि लोहे के जंजीर में यानी लौह-पाश में फँसा आदमी तो किसी न किसी दिन मुक्त (छूट) हो ही जाता है परन्तु माया-मोह-ममता-वासना रूप स्त्री पाश से मनुष्य को छूटना और मुक्त होना एक अति कठिन बात होगा । यदि असम्भव भी कह दिया जाय तो कुछ समय के लिये उचित ही होगा । स्त्री पाश ही है जो मानव को अपने माया-मोह-ममता एवं वासना आदि में फँसाकर सृष्टि के चैरासी लाख योनि में नचाता रहता है । मनुष्य चाहते हुये भी आसानी से इस मोह-पाश (स्त्री पाश) को काट नहीं पाता और जन्म-जन्मान्तर तक नाना कष्टों, नाना दुःख एवं विपदाओं को झेलता रहता है । अरे अभागे स्त्री पाश में आसक्त गृहासक्तों ! अरे ! इतने पर भी तो चेत । अब भी तो अनन्य भाव से भगवद् शरणागत होकर अपना उद्धार कर-करा ले । फिर ऐसा मौका कब मिलेगा, ठिकाना नहीं है ।
 ‘‘विवाह’’ फँसाहट एवं बर्बादी कैसे ?
      सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक बन्धुओं ! ‘‘विवाह’’ फँसाहट एवं बर्बादी कैसे -- का प्रकरण तो बहुत कहा-देखा जा चुका । परन्तु यह ऐसी बात है कि ऐसा बार-बार कहने-लिखने पर भी फँसे हुये बन्धुओं को देखते हुये सन्तोष नहीं हो पा रहा है कि आखिर ये इस घोर माया-मोह-ममता-वासना रूपी समस्त अवगुणों और दुःखों की खान इनके संयुक्त रूप साक्षात् मूर्ति रूपी स्त्री-पाश में फँसते जा रहे हैं । अब हम लोग इस बात पर तो पूर्णतः आश्वस्त हो ही गये हैं कि स्त्री-पाश में जकड़े हुये तथा ऐसे स्त्री-पाश में जकड़ने वाले को निकालना एवं उन्हें बचाये रखना भगवत् कृपा विशेष के सिवाय इन घोर अधःपतित अज्ञानी अभागे मानव का सुधार एवं उद्धार रूप कल्याण होना कठिन ही नहीं, अपितु असम्भव कार्य या बात है । मानव कामिनी-कांचन अथवा व्यक्ति-वस्तु अथवा शरीर-सम्पत्ति में इतना जकड़ गया है कि इस मूढ़ एवं जढ़ी मानव ने अपने ‘स्व’ रूप जीव भाव को भी भूल गया है और शरीर भाव से भी गिर कर सम्पत्ति भाव में जा पहुँचा है । यानी अब सम्पत्ति संग्रह करने में शरीर को भी लगा-बझा तथा समाप्त कर-करा दे रहा है । सम्पत्ति के चलते आज शरीर का महत्त्व भी समाप्त हो चुका है । जहाँ तक हम समझ पा रहे हैं, मानव पतन के अन्तिम रूप में पहुँच चुका है । इसको पतन के इस अन्तिम रूप से निकाल कर उत्थान के अन्तिम रूप भगवद् शरणागत कराना अब इतना आसान काम नहीं रह गया है जितना कि श्रीविष्णु जी, श्रीराम जी तथा श्रीकृष्ण जी महाराज आदि के समय में था । आइये अब मूल शीर्षक ‘विवाह’ फँसाहट एवं बर्बादी कैसे-- को यहाँ सूझ-बूझ के साथ जाना-देखा-समझा-कहा जाय तथा अपने जीवन में उतारा जाय।
     सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक बन्धुओं ! सबसे आदि में तो सभी जीव परमब्रह्म- परमेश्वर में समाहित थे । परमप्रभु की प्रेरणा से उन्हीं में से आत्म ज्योति अथवा ब्रह्म ज्योति निकल कर पृथक् हुआ। तत्पश्चात् पृथक्करण के सिद्धान्त से सारी सृष्टि एवं ब्रह्म ज्योति से जीव भाव की उत्पत्ति हुई । गर्भस्थ शिशुस्थ जीव तो एक हद (सीमा) तक ब्रह्ममय स्थिति में रहा, परन्तु गर्भ से बाहर आते ही मायावी-साँसारिक-शारीरिक मोहासक्त (माया की प्रेरणा से) होकर रहने वालों द्वारा शिशुस्थ ब्रह्ममय जीव का सम्बन्ध काट-कटवा कर (ब्रह्मनाल कटवा कर) ब्रह्म से विच्छेद कर-करा कर जीव को शरीरमय बना दिया गया । इसके पश्चात् शारीरिक भाव के आये दिन के अभ्यास से शरीरमय जीव को भी पूर्णतः शरीर भाव में कि ‘मैं शरीर’ ही हूँ, शरीर के अलावा और कुछ नहीं, तक पहुँचा दिया  गया । शारीरिक भाव वाले माता-पिता, भाई-बहन आदि नाना सम्बन्धों को स्थापित करते हुए जीव को पूर्णतः शरीराभास रूप तक पहुँचाते हुए, शारीरिक, पारिवारिक बनाते हुए पूर्णतः ब्रह्ममय स्थिति से बिछुड़ा-भुला-भटका कर संसारमय बना दिया गया । संसार में फँसाकर अधःपतन के अन्तिम रूप सम्पत्तिमय तक पहुँचा दिया गया, जिसके बाद तो अब पतन के लिए भी स्थान नहीं रहा, यानी पतन का भी पतन रूप भी यहीं तक हैं ।
        सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक बन्धुओं ! कहाँ तो जीव ज्योतिरूप ब्रह्म था जो प्रारब्ध कर्म तथा प्रभु प्रेरणा से वह शरीरस्थ (शरीर में प्रवेश करके) जीव भाव में आया । ब्रह्म से गिरकर या पृथक् होकर या पतित होकर शरीर में प्रवेश करके जीव रूप हो गया । तो जब जीव ब्रह्म-ज्योति था, तब तो सीधे भगवान् से सम्बन्धित   था । भगवान् के द्वारा ही सभी भगवद् भाव में ही रहते थे तथा भगवद् लाभ को सदा ही प्राप्त थे । परन्तु ब्रह्म-ज्योति से पृथक्करण से शरीरस्थ जीव बने तो भगवद् सम्पर्क तो टूट ही गया, भगवद् सम्बन्ध भी शरीर में आते ही कट गया । अब जीव का सीधा सम्बन्ध ब्रह्म ज्योति से हो गया और जीव जो ब्रह्म ज्योति रूप में भगवन्मय था, अब भगवन्मय से बिछुड़ कर ब्रह्ममय हो गया जिससे भगवद् लाभ तो इसका बन्द हो गया । अब उसके स्थान पर इसे ब्रह्ममय भाव में रहते हुये शान्ति और आनन्द रूप चिदानन्द या ब्रह्मानन्द की अनुभूति होने लगी । जबकि भगवद् भाव में था तो परमशान्ति और परमानन्द रूप सच्चिदानन्द या सदानन्द रूप बोध होता हुआ मुक्ति और अमरता से भी युक्त था । परन्तु अब तो ये सब समाप्त होकर यानी बोध होना बन्द होकर अनुभूति मात्र ही रह गई । पुनः गर्भस्थ शिशुस्थ जीव ब्रह्ममय रहता हुआ शान्ति और आनन्द रूप स्थिर ब्रह्मानन्दमय रहता था । परन्तु गर्भस्थ शिशुस्थ ब्रह्ममय जीव जैसे ही गर्भ से बाहर आया कि जीव का ब्रह्ममय भाव भी ब्रह्मनाल कटवाकर ब्रह्म से सम्पर्क विच्छेद करवाकर मिल रहे स्थिर शान्ति और आनन्द रूप स्थिर ब्रह्मानन्द से भी बंचित करवा दिया गया और ब्रह्ममय भाव से जीव को शरीरमय जीव भाव में कर दिया गया। तो वह स्थिर शान्ति और आनन्द रूप ब्रह्मानन्द से भी बंचित होकर शरीरमय जीव भाव से आनन्दमय मात्र रहने लगा । पुनः आये दिन चारों तरफ से शारीरिकों के शारीरिक हम-हम से अभ्यसित  होकर जीव का जीव भाव भी समाप्त होकर मानो अब केवल शरीराभास ही रह गया । अर्थात् जीव अपने शरीर को ही अपना रूप एवं शरीर के नाम को ही  अपना नाम मानने-जानने लगा तथा शरीर के इसी भाव से संसार में व्यवहरित भी होने लगा । चूँकि शरीर को तो प्रायः सभी लोग ही जानते हैं कि यह शरीर सभी विकारों से भरा पूरा एक मल की कोठरी है, जो पसीना, मेदा (नाक से निकलने वाला गदला पोटा), कीचर (आँख की गन्दगी), खोंट (कान से निकलने वाली गन्दगी), खेंखार-बलगम (मुख से निकलने वाली गन्दगी), पेशाब तथा पखाना आदि के रूप में मल इस शरीर से बराबर ही बाहर निकलता रहता है, जिसे प्रायः सभी मनुष्य जान-देख रहे हैं । फिर भी इस शरीर में ऐसा चिपक (माया-मोहासक्त हो) गये हैं कि इन्हें भगवान् से मतलब तो नहीं ही जान पड़ता है, ब्रह्म से भी मतलब महसूस नहीं हो रहा है । भगवान् और ब्रह्म से मतलब तो इन्हें नहीं ही रहा, अब तो अपने जीव को भी जानने-समझने तथा इस मल की कोठरी से अपने (जीव) को पृथक् मानने की इच्छा या आवश्यकता भी इन्हें नहीं रह गयी है । अब ये मात्र शारीरिक माता-पिता के मैथुनी-मल से बनी इस विनाशशील क्षणिक मल की कोठरी में ही जकड़े रहना ज्यादा पसन्द कर रहे हैं तथा इस मल की कोठरी रूप शरीर के लिये बने संसार के पीछे अनायास ही व्यर्थ दौड़ रहे हैं।
        सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक बन्धुओं ! थोड़ा तो आप भी विचार करते हुए थोड़ा भी तो सूझ-बूझ से काम लीजिये कि कहाँ तो आप परम शान्ति और परम आनन्द रूप सच्चिदानन्द - सदानन्द (शाश्वत् शान्ति और आनन्दमय) रूप मुक्ति और अमरता से युक्त भगवद् भाव रूप में भगवद्मय ब्रह्म-ज्योति थे, जो मुक्ति और अमरता प्रदान करने वाले भगवान् से सदा सम्पर्क रखने से बोध होता रहता था । तत्पश्चात्  प्रारब्ध के वशीभूत होकर और भगवद् प्रेरणा से भक्ति-सेवा-प्रेम से पूर्णतः भगवद् विलीन होने के लिये शरीर में आकर ब्रह्ममय जीव बने । तो इस स्थिति में भी स्थिर शान्ति और आनन्द रूप चिदानन्द या ब्रह्मानन्दमय बह्ममय भाव में रहे, तब भी कम से कम अविनाशी वाला भाव तो बना ही था । पुनः जब ब्रह्ममय जीव का सम्बन्ध ब्रह्म से कटवा दिया गया और शरीरमय जीव भाव तत्पश्चात् शारीरिकों के बार-बार के शारीरिक अभ्यास द्वारा जीव भाव को भी समाप्त कर-करवा कर मात्र शरीर भाव कि मैं शरीर हूँ, शरीर ही मेरा रूप है तथा शरीर का नाम ही मेरा नाम है और शारीरिक नाम-रूप मात्र वाले माता- पिता,भाई-बहन आदि सगा-सम्बन्धी, दोस्त-मित्र ही मेरे सम्बन्धी तथा हितेच्छु हैं -- इस प्रकार जब इस शरीर को ही अपना नाम-रूप मानकर मैं केवल शरीर मात्र हूँ, शरीर से अलग कुछ नहीं -- तत्पश्चात् शरीर भाव से भी पतित रूप स्त्री भाव और सम्पत्ति भाव जब हो जाता है, तब थोड़ा आप बन्धुओं भी तो सोचंे कि जो आप अपने को मानेंगे, तो उसकी जो गति होगी, वही गति तो आपकी भी होगी अथवा होती हुई मानी जायेगी ! इस प्रकार जब आप  केवल शरीर मात्र ही हैं और शरीर से पृथक् कुछ नहीं है। तब तो शरीर की जो गति होगी वही आपकी गति होगी अथवा शरीर की गति ही आप की गति मान ली जायेगी। तब तो शरीर विनाशशील है, तो आप भी विनाशशील हुए ।  शरीर मलों की कोठरी है, तो आप भी मलों की कोठरी मात्र ही  हुए । शरीर क्षणिक है यानी किस क्षण इसकी समाप्ति हो जायेगी यह पता नहीं, तो आप भी क्षणिक ही हुये यानी पता नहीं किस  क्षण आप की भी समाप्ति हो जायेगी। शरीर सभी विकारों से भरी-पूरी विकारों मात्र की ही एक कोठरी है, तो आप भी विकारों से भरे हुये एक कोठरी मात्र है । शरीर जड़ पदार्थों से बनी एक जड़वत् मशीन यन्त्र मात्र है । क्योंकि जीव इसमें रहता है तो यह क्रियाशील एवं गतिशील रहती है और जीव जब शरीर को छोड़ देता है तब यह क्रियाहीन एवं गतिहीन मृतक् रूप जड़वत् ही पड़ा रहता है और मात्र शरीर ही आप हैं तब तो आप भी मुर्दा के समान (मृतक के समान) ही हैं। ठीक जिस प्रकार मुर्दा जड़वत् है उसी प्रकार आप भी जड़ ही हैं। तब तो ऐ जढ़ी एवं मूढ़, विनाशी तुझ जड़ शरीर और मृतक् में जो बोलने-चालने वाला अन्तर है, वह क्या है ? अरे जढ़ी एवं मूढ़ गृहस्थ ! अब से भी तो चेत कि तू शरीर मात्र नहीं है बल्कि शरीर में रहने वाला शरीर से पृथक् जीव पुनः आत्मा है । अरे जढ़ जीव ! तू अपना अविनाशी रूप तो जान-देख ! इस विनाशशील शरीर मात्र में फँस कर क्यों  विनाश को प्राप्त हो रहा है ?
सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक बन्धुओं ! आप जीव जो पहले भगवन्मय मुक्ति और अमरता से युक्त परमशान्ति और परम आनन्द वाला ब्रह्म ज्योति थे जिससे पृथक् होकर, गिरकर यानी पतित होकर स्थिर शान्ति और आनन्द से युक्त चिदानन्द-ब्रह्मानन्द वाला ब्रह्ममय जीव बने। पुनः ब्रह्ममय से पृथक् होकर, गिरकर अथवा पतित होकर आनन्द वाला शरीरमय जीव बन गये। पुनः उसी पृथक् एवं पतित रूप होता हुआ सभी दुःखों के घर, सभी विकारों की कोठरी, सभी मलों की कोठरी, क्षणिक एवं विनाशशील केवल शरीर बन गये । अब आप सोचिये कि यदि आप मान लीजिये कि आप शरीर ही हों तो शरीर को जिस सम्पर्क में रखियेगा, वैसा ही तो यह बनेगी । तो आप शरीर पर भी तो ध्यान दें । शरीर को आप जैसा रखेंगे वैसी ही रहेगी। जहाँ आप चाहेंगे वहीं यह जायेगी। जो आप चाहेंगे वही यह करेगी । जिसके सम्पर्क में आप इस शरीर को रखेंगे उसी के दोष-गुण, आचरण-व्यवहार, शक्ति-सामथ्र्य एवं उसी के हानि-लाभ की भुक्त-भोगी बनेगी । यदि आप इस शरीर को खुदा-गाॅड-भगवान् को जान-समझ, देख-पहचान करते हुये अद्वैत्तत्त्व बोध प्राप्त करते हुये मुक्ति और अमरता के बोध के साथ ही आप अनन्य भक्ति-भाव से भगवद् सेवा एवं भगवत् प्रेम में इस शरीर को लगा देते हैं तो शरीर रहते परमशान्ति और परम आनन्द रूप सच्चिदानन्दमय रहते हुये मुक्तपुरुष, अमरपुरुष और सत्पुरुष रूप में रहते हुये अन्ततः शरीर छोड़ने पर आप भगवन्मय जीवात्मा भगवान् में ही विलीन होकर अमरलोक रूप परमधाम को प्राप्त होंगे। यदि आप इस शरीर के रहते हुये भी भगवान् को नहीं जान-समझ-देख-पहचान सके क्योंकि वास्तव में भगवान् की कृपा विशेष के सिवाय भगवान् को कोई जान-समझ-देख-पहचान कर ही नहीं सकता है, तो इसमें मान लिया गया कि आपके चाहते हुये भी भगवान् का सम्पर्क नहीं प्राप्त हो सका, तो यह भी आपका कहना ठीक ही है । क्योंकि भगवान् भू-मण्डल पर तो रहता नहीं है, वह तो सदा-सर्वदा परम आकाश रूप परमधाम में ही सच्चिदानन्द या परमानन्द या सदानन्द रूप में रहता है जो समय-समय पर सत्य सनातन धर्म के संस्थापनार्थ तथा सज्जन पुरुषों के रक्षा-व्यवस्था तथा दुष्टों का दलन करता हुआ पुनः अपने परमधाम को चला जाता है। तो इस प्रकार यदि भगवत् प्राप्ति आप को नहीं हो सकी फिर भी आप को अनन्य भक्तिभाव के साथ भगवद् शरणागत ही सर्वतोभावेन होना-रहना चाहिये । खैर ! यदि इसके बावजूद भी आप भगवद् शरणागत नहीं हो सके तो कम से कम आत्मा या ईश्वर या नूर या सोल या ब्रह्म जो कि बराबर ही जीवों को सम्पर्क लाभ देता हुआ सदा ही संसार और परमब्रह्म के मध्य सम्पर्क बनाये रखता है, तो आप शरीरधारी जीव बन्धुओं को उस आत्मा या ईश्वर या नूर या सोल या ब्रह्म को तो कम से कम जान- समझ-देख-पहचान कर अपने शरीर को आत्मामय या ईश्वरमय या ब्रह्ममय बनाये रखना चाहिये कि शांति और आनन्द रूप चिदानन्द या ब्रह्मानन्द की अनुभूति प्राप्त होता रहे और शरीर छोड़ने पर स्वर्ग-नरक से बच सको तो अपना सम्बन्ध परमात्मा-आत्मा से जोड़ने के बजाय स्त्री, शरीर और सम्पत्ति से जोड़ कर विनाश को ही स्वीकार कर रहे हो ! क्योंकि स्त्री क्या होती है ? भगवदवतार रूप श्रीराम जी के ‘मत’ को भी देख ही चुके हैं । तो आप सभी अवगुणों, दुःखों, माया-मोह-ममता-वासना आदि के साक्षात् मूर्ति रूप सभी दुःखों के खान रूप औरत से सम्बन्ध जोड़ कर सुख-शान्ति से तो बंचित हो ही जाओगे, विनाश को भी प्राप्त होते देर नहीं लगेगी। अरे मूढ़ ! अब से भी चेत । भगवान् से कर हेत ।।