हम क्या थे और क्या बना दिये गये ?

हम क्या थे और क्या बना
दिये गये ?
      सद्भावी सत्यान्वेषी गृहस्थ बन्धुओं ! हम आत्मा या ब्रह्म थे परन्तु परमात्मा या परमब्रह्म के सकाश से आदि-शक्ति या महामाया रूप प्रकृति द्वारा पूर्व के प्रारब्ध के अनुसार तथा जैविकीय सम्बन्ध के कारण जीव रूप में पिता-माता की इच्छा के अनुसार पिता के अन्तर्गत शुक्र रूप में होता हुआ वीर्य के सहारे माता के गर्भ में आकर शरीर बना, परन्तु पुनः ब्रह्म शक्ति से प्राण-संचार द्वारा हम शरीर से पृथक् जीव शरीर में रहते हुए भी शरीरस्थ नार पुरइन (ब्रह्मनाल) के माध्यम से ऊध्र्वमुखी मुद्रा में रहते हुए अपने (हम जीव के) असल अविनाशी दिव्य पिता-माता रूप ब्रह्म-शक्ति से दरश-परश से मेल-मिलाप रखते हुए--ब्रह्ममय (जीव$आत्मा हँ्सो) रूप में रहा । गर्भ में रहने तक तो ब्रह्ममय ही रहा, परन्तु गर्भ से बाहर आते ही, जढ़ता एवं मूढ़ता से ग्रस्त, अधःपतन को प्राप्त अधः पतित रूप शारीरिक माता-पिता या संरक्षक द्वारा चमईन (प्रसव सेविका) बुलवाकर उसी से शरीरस्थ नार-पुरईन कटवा दिया गया । जैसे ही नार-पुरइन कटा वैसे हम जीव का ब्रह्म-शक्ति से जो दरश-परश वाला जो सम्बन्ध था वह भी कट गया जिससे हम जीव को निरन्तर दिखलायी देने वाली उस ब्रह्म-ज्योति से हम जीव बिछुड़ कर घोर अंधेरा में हो गये । मेरे चारों तरफ जो ब्रह्म ज्योति थी उसके स्थान पर चारों तरफ ही घोर अंधेरा हो गया जिसके अन्दर मुझे अपनी सुध भी न रही और हम जीव अपनी ऊध्र्वमुखी दृष्टि को चारों तरफ दौड़ा-दौड़ा कर लगे उस ब्रह्म ज्योति की खोज करने परन्तु सब प्रयत्नों के बावजूद भी हमें वह ब्रह्म ज्योति जो हमारे पिता-माता के रूप में थे तथा जिसने गर्भ जैसे घोर अंधेरी कोठरी में भी उजाला (दिव्य-ज्योति या ब्रह्म ज्योति) देते थे, जहाँ कुछ नहीं था वहाँ पर दिव्य ध्वनियाँ सुना-सुना कर आनन्द मग्न रखे थे, जहाँ कोई सहारा नहीं देने वाला था, वहाँ वे हमें प्राण संचार द्वारा नाम-- सोऽह-हँ्सो-शब्द का सहारा दिया तथा हमेशा हमें अपना ब्रह्म ज्योति रूप दर्शाते थे आदि आदि बातें सोचते हुए घोर अंधेरे में उस ब्रह्म ज्योति को खोज करते हुए विक्षिप्त सा हो गये और अब हम जीव निःसहाय जैसे हो गये तो उस परेशानी के कारण हमारी ऊध्र्वमुखी दृष्टि उस ब्रह्म ज्योति की खोज करती हुई अधोमुखी होकर परेशान होने लगी तब तक शारीरिक आँख जो बन्द थी, अचानक खुल गयी, तो विक्षिप्तता अवस्था में ही एक ज्योति (दीप-ज्योति) दिखलायी दिया, तो हम तो घोर अंधेरे में ज्योति (दिव्य ज्योति) के खोज में थे ही तो ज्योति (दीप ज्योति) देख मुझे कुछ राहत मिला । हमें क्या पता कि यह दीपक की ज्योति है जो हमको लुभाने फँसाने हेतु रखा गया है ।
        सद्भावी सत्यान्वेषी गृहस्थ बन्धुओं ! फिलहाल दीप-ज्योति ही को दिव्य ज्योति जान-मान कर कुछ राहत मिली,  तब तक कुछ समय बाद  ही आवाज भी कुछ उसी दिव्य ध्वनियाँ जैसी ही सुनायी पड़ी, तो असल आवाज जो हम जीव को दिव्य अविनाशी पिता-माता रूप ब्रह्म-शक्ति के यहाँ सुनने को मिलती थी, तो अब तो बिछुड़ जाने के कारण वह भी बन्द ही हो गयी थी तो हमको लगा कि ज्योति दिखलायी ही दे रही है और ध्वनियाँ (आवाज) भी सुनायी देने लगी, तो हमें पुनः आनन्द हुआ । हमें क्या पता है कि असल अविनाशी दिव्य पिता-माता रूप ब्रह्म-शक्ति से सम्बन्ध से बिछुड़ा-भटका कर उन्हीं अधः पतित रूप विनाशशील शारीरिक माता-पिता, भाई-बहनों आदि द्वारा हमको लुभाने-फँसाने हेतु यह नकली ध्वनियाँ (फूल की थाली बजा-बजवा कर) सुनायी जा रही  है । हम उस आवाज में आनन्द मगन होकर सुनने लगे। धिक्कार है फँसाने वालों तुझको ।
        बन्धुओं ! पुनः हमें अमृत पान वाली बात याद आयी क्योंकि एक तो हमारा दिव्य सम्बन्ध कटवा दिया गया था, दूसरे  हमारे ऊध्र्वमुखी जिह्वा को कण्ठ कूप (खेंचरी-मुद्रा) से निकाल-खींच कर मुख में ला दिया गया, जिससे कि ‘अमृत पान’ बिल्कुल ही बन्द हो गया और जिह्वा सूखने लगा, तब तक ‘अमृत’ जैसा ही कुछ (मधु) हमारे जीभ (जिह्वा) पर रखा गया, जिसे मैं अमृत जान-मान कर उसका पान कर गया । हमको क्या पता कि हमको हमारे असल अविनाशी दिव्य पिता-माता रूप ब्रह्म शक्ति से बिछुड़ा कर अधः पतन को प्राप्त अधः पतित विनाशशील शारीरिक माता-पिता द्वारा ही हमें लुभाने-फँसाने हेतु ही ‘अमृत पान’ के जगह ‘मधु-पान’ करा रहे हैं । हम तो उसे असल अमृत समझ कर पान करने लगे । धिक्कार है तुझे, फँसाने वालों!
         पुनः गर्भ में हमारे (जीव) के सहारा हेतु हमारे असल अविनाशी दिव्य पिता-माता रूप ब्रह्म शक्ति ने हमें प्राण-संचार के द्वारा होने वाली अखण्ड वृत्ति रूप नाम--
सोऽह-हँ्सो शब्द दिया था जिसके सहारे हम (जीव) निरन्तर उससे (ब्रह्म से) मिलते रहते थे, वह अखण्ड वृत्ति भी खण्डित हो गयी, जिसके स्थान पर हमें ‘सोहर’ गा-गा कर और उसमें अधः पतित रूप विनाशशील शारीरिक माता-पिता, भाई-बहनों आदि का नाम ले लेकर सुनाते हुए लुभाया फँसाया गया । धिक्कार है फँसाने वालों तुझे !
         सद्भावी बन्धुओं ! पहले हम लोग ब्रह्म थे, प्रारब्ध वश हम आप शरीर में आकर जीव बने, पुनः ब्रह्म-शक्ति के सहयोग से ब्रह्ममय बने,  तत्पश्चात् उधर से ब्रह्ममय वृत्ति से बिछुड़ा कर शरीरमय माता शरीरमय पिता, शरीरमय भाई-बहन, बन्धु-बान्धवों में फँसाते हुए हमें शरीरमय से भी शरीर बना दिया गया । शरीरों में काफी समय बाद यानी उपनयन संस्कार तक शूद्रवत् व्यवहार किया-कराया गया, जिससे कि मेरा पतन होता हुआ-ब्रह्म से ब्रह्ममय जीव, ब्रह्ममय जीव से सीधे शरीरमय जीव, पुनः शरीरमय से शरीर तथा अधः पतन रूप शूद्र शरीरों तक बना पहुँचा दिया गया । धिक्कार है फँसाने वालों तुझे । 
                                                      अमृत पान से जल पान तक
       सद्भावी सत्यान्वेषी गृहस्थ बन्धुओं ! हम (जीव) जब अपने असल अविनाशी दिव्य पिता-माता रूप ब्रह्म-शक्ति के सम्पर्क, दरश-परश अथवा मेल-मिलाप में थे, तब तो हमें (जीव को) ‘अमृत पान’ करने को मिलता रहा जिसमें किसी प्रकार का मल-विक्षेेप की आवश्यकता ही नहीं पड़ती है। वहाँ पर सदा ही अन्न-जल के स्थान पर अमृत पान ही मिलता रहता है । अन्न-जल ग्रहण करने पर तो मल-विक्षेप करना ही पड़ता है और पड़ेगा भी । वहाँ पर न तो कोई साँसारिक कर्म ही होता है और न तो साँसारिक किसी भोग की आवश्यकता ही महशूस होती है । हमारे (जीव के) दिव्य माता-पिता के यहाँ तो बराबर ही शान्ति बनी रहती है और आनन्दानुभूति होती रहती है, वहाँ क्षुधा-तृष्णा जा ही नहीं सकती है क्योंकि निरन्तर ही अमृत बूँद झरता-टपकता रहता है । हमारे (जीव के) उस दिव्य पिता-माता के सम्पर्क, दरश-परश या मेल-मिलाप में जो जीव चाहे जितनी संख्या में ही क्यों न हो प्रत्येक को ही झरता व टपकता हुआ अमृत बूँद ही पान करने को मिलता रहता है, कौन कितना अमृत् पान करता है, यह भी वहाँ न तो कोई पूछ होती है और न मनाही ही, क्योंकि वहाँ पर इसकी कमी की बात सोची ही नहीं जा सकती है क्योंकि वह अक्षय भण्डार है । हमारे (जीव के) असल अविनाशी दिव्य पिता-माता रूप ब्रह्म-शक्ति के यहाँ प्राण संचार रूप लिफ्ट (विद्युत सीढ़ी) में जो भी अपने को श्रद्धा-विश्वास के साथ रख देता है, वहाँ पहुँच जाता है, तो पहुँचते ही दिव्य ज्योति रूप अविनाशी दिव्य पिता-माता का साक्षात्कार दरश-परश होता है, वहाँ निरन्तर, अनवरत हो रही दिव्य ध्वनियाँ सुनने को मिलती हैं, जो आनन्द विभोर कर देती है, अन्न-जल के स्थान पर झरता व टपकता हुआ अमृत पान करने को मिलता है, तो हमारा (जीव का) अविनाशी दिव्य पिता-माता रूप ब्रह्म-शक्ति मेल-मिलाप में रहने वाले जीव को अपने समान ही शान्ति आनन्द तथा सत्ता-शक्ति से सम्पन्न बना देता है; वैसे हमारे (जीव के) अविनाशी पिता-माता रूप ब्रह्म शक्ति से सम्बन्ध विच्छेद करा कर अधःपतन को प्राप्त शारीरिक पिता-माता, संरक्षक आदि विनाशशील अधःपतित जन हम (जीव) को भी ब्रह्ममय से शरीरमय बनाते हुए, शरीरमय जीवभाव को भी समाप्त कर-करवा कर आभासित शरीर ही बना दिये सब; जो जीव का ब्रह्म से  पतन होता हुआ अधःपतित रूप शरीर ही बना दिया । इतना ही नहीं, उपनयन संस्कार तक तो अछूत एवं शूद्रवत् शरीर बन कर ही रहना पड़ता है, जो एक तरह घोरतम अधः पतन ही है । अमृत् पान के स्थान पर शुरू-शुरू में  मधु-पान कराया गया, पुनः शारीरिक माता के दुग्ध से सम्बन्ध जोड़वाकर दुग्धपान-पुनः गौ का दुग्ध पान कराया जाने लगा- कुछ को बकरी और कुछ को भैंस का दुग्ध पान कराया गया, जब दूध भी मिलना कठिन हो गया, तो अन्ततः स्थिति जल-पान तक   पहुँची । आजकल तो अधिकांश लोगों की तो गर्मी के मौसम में तो जल भी बहुतों को किसी किसी तरह अपार कठिनाइयों का सामना करने पर मिल पा रहा है । राजधानियों में भी पीने के जल के लिए जुलूस निकल रहे हैं लोगों को अब जलपान भी दुर्लभ हो गया । धिक्कार है फँसाने वालों तुझे कि मुझे ब्रह्ममय से शारीरिक-पारिवारिक एवं साँसारिक बनाया जहाँ जलपान भी दुर्लभ है । हाय रे व्यवस्था तेरे को धिक्कार है, हाय रे सरकार तेरे को भी  धिक्कार है कि तेरे जनता को जल पान तक नहीं मिल पा रहा है । धिक्कार ! धिक्कार !! धिक्कार !!! ऐसी सरकार को जिसके जनता को जल पान तक नहीं मिल पा रहा है । एक तरफ तो पीने हेतु जल नहीं है और दूसरे तरफ दहतर (बाढ़) का ठेकाना (सीमा) नहीं  है । यह है सब वर्तमान भ्रष्ट व्यवस्था एवं भ्रष्टता रूप भ्रष्ट कर्मों का फल । पुनः एक तरफ पीने हेतु जल नहीं और दूसरे तरफ दहतर की सीमा नहीं । करो और   भोगो । भोगो और करो, प्यासे डूब कर मरो।
          सद्भावी सत्यान्वेषी गृहस्थ बन्धुओं ! जब हमें (जीव को) हमारे (जीव के) अविनाशी दिव्य पिता-माता रूप ब्रह्म-शक्ति से सम्बन्ध विच्छेद  करवा कर, जहाँ पर कि हमें (जीव को) अनवरत शान्ति और आनन्द की अनुभूति होती रही,  ये अधः पतित विनाशशील शारीरिक-पारिवारिक तथा सामाजिक या साँसारिक माता-पिता अपने शरीरों में फँसा-फँसा कर कि हम (शरीर) भाई हैं, हम (शरीर) बहन हैं,  हम  (शरीर) चाचा हैं, हम (शरीर) चाची हैं, हम (शरीर) मामी हैं, हम (शरीर) मौसी हैं, हम (शरीर) हित हैं, हम (शरीर) नात हैं, हम (शरीर) दोस्त-मित्र, बन्धु-बान्धव, पट्टीदार,पड़ौसी आदि हैं । जिधर हम (जीव) ने देखा उधर ही सभी के सभी शरीर को ही हम-हम-हम कह-कह कर अपना-अपना परिचय दे रहे हैं, रात-दिन के अधःपतन को प्राप्त होकर अधः पतित शरीर ही मानने-जानने तथा शरीर के माध्यम से यही अपना पता वगैरह भी बताने तथा शारीरिक नाम-रूप से ही व्यवहार देने लगे । जिसका  दुष्परिणाम यह हुआ कि परमात्मा या परमेश्वर या परमब्रह्म तथा आदि-शक्ति को भी भूलते हुए अपने अहं रूप हम जो शरीरस्थ जीव है, जिसके वगैर शरीर को न कोई पूछने वाला होगा और न तो कोई मानने-जानने वाला; इतना ही नहीं, शरीर स्वयं भी सड़-गल कर मिट्टी हो जाएगी  अथवा गीध, चील, कौआ, कुक्कुर, सिआर आदि नोच-नोच कर खायेंगे अथवा जल जन्तु खा जायेंगे अथवा राख हो कर मिट्टी में ही मिल जायेगी,  इसी शरीर को अपना रूप मानते हुए अपने जीव के अस्तित्त्व को भी भूल गया। जबकि आये दिन ही चारों तरफ देख रहा हूँ . कि जीव द्वारा शरीर छोड़ देने पर शरीर का, जो सबसे अधिक समीपी, जानने-मानने वाला, जो सम्पत्ति का उत्तराधिकारी होने वाला है, प्रायः वही उसी शरीर के मुख में लुकारी (आग) भी लगा रहा है; फिर भी हम अपने को नहीं देख पाते हैं । इससे स्पष्ट हो जा रहा है कि मेरे आँख को बन्द कर करा दिया गया है जिससे सब कुछ देखते हुए भी अनदेखे जैसे प्रयुक्त (व्यवहरित) हो रहा हूँ । मेरे बुद्धि और दिल-दिमाग पर भी जढ़ता-मूढ़ता रूपी इतनी मोटी काई (जल को ढकने वाली गन्दगी) बैठ गयी है कि सब कुछ सामने ही होते-जाते देख-सुन कर न तो आँख का पट्टा ही खुल पा रहा है और न तो दिल-दिमाग-बुद्धि की ‘काई’ ही हट--मिट रही है कि सूझ-बूझ होवे । धिक्कार है हम (जीव) को, कि इतना पर भी नहीं सम्भल रहा है  तथा  धिक्कार है मोह-माया को भी कि हमारे (जीव) के जैसे नादान, अबोध एवं निःसहाय  जीव पर भी दया न करके, फँसा कर अपने आवागमन चक्कर में डाल कर पेरती रहती है । इस प्रकार माया-मोह में फँसाने वालों द्वारा फँस कर उन्हीं फँसा फँसा कर विनाश के मुख में ले जाने वाले अधः पतितों को ही माता, पिता, भाई, बहन, परिवार, पड़ोस आदि अपना हित-दायी मानते हुए उन्हीं अपने मीठे जहर रूप शत्रु मण्डली में ही फँस कर दिन बिता रहा हूँ ।
       सद्भावी सत्यान्वेषी गृहस्थ बन्धुओं ! फँस जाने के पश्चात् अब हम (शरीर) जब तक छोटे शिशु रूप में था, तब तक माता (शरीर), पिता (शरीर), भाई, बहन, परिवार आदि शरीरों द्वारा शरीर से हम शरीर को तो बहुत ही काफी लाड़-प्यार, दुलार देते रहें क्योंकि हम जीव को ममता-मोह, दुलार-प्यार के द्वारा हम शरीर में फँसा कर शरीर ही बनाना था परन्तु हम जब शरीर बन गये, उनके ममता-मोह में फँस गये, तो जैसे जैसे हम शरीर बढ़ने लगे, वैसे-वैसे मुझे मिलने वाला लाड़-प्यार भी कम होने लगा। जो पहले हमें ‘मधु’ पान कराया गया था तत्पश्चात् दुग्ध पान कराया गया, अब वह भी बन्द कर-करा कर अन्न-जल दिया जाने लगा तथा अब थोड़ा भी उनके प्रतिकूल होने पर डाँट-फटकार भी मिलने लगा, क्योंकि अब वे अच्छी तरह जान-समझ गये हैं कि अब यह हम लोगों के ममता-आसक्ति रूपी मोह-जाल में जकड़ चुका है । अब यह हम शरीरों को ही अपना माता-पिता, भाई-बहन आदि समझने लगा है, अब हम लोगों को छोड़कर कहीं जा नहीं सकता है क्योंकि अब हम शरीरों को ही अपना सबसे बड़ा हितेच्छु मान बैठा है । इसलिए लाड़-प्यार, ममता-दुलार आदि का स्थान डांट-फटकार तथा कभी-कभार मार-पीट भी पड़ने लगी । अब मैं कर भी क्या सकता था क्योंकि मैं भी अब बिल्कुल शरीर बन चुका था । अब ये ही अपने दिखलायी देने लगे थे क्योंकि अभी छोटी-मोटी शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति-व्यवस्था भी इन्हीं लोगों के द्वारा अपनी-अपनी क्षमतानुसार मिलती रहती थी तथा अपना-पराया रूपी भेद-भाव भी मेरे दिल-दिमाग में भरता जा रहा था ।
     परिवार के हित-मित्र और परिवार के दुश्मन-शत्रु, हमारे भी दुश्मन होते-हवाते गये, इस प्रकार दुश्मनी और मित्रता, हित और शत्रुता का भाव भी मेरे दिल-दिमाग में भरने लगा। आप पाठक बन्धुओं अब जरा आप सोचते-समझते भी चलें कि आप-हम क्या थे और क्या होते जा रहे हैं, और आगे क्या-क्या बनेंगे, उसे आगे देखा जायेगा । इस प्रकार कुछ समय बाद ऐसा होने लगा कि शारीरिक माता-पिता हमको (शरीर को) अब फुरसत या आराम-विश्राम या काम से मौका मिलने  पर ही ममता-प्यार देने लगे । अब लाड़-प्यार जो मुझे छोटे शिशु रूप में मिलता था, अब बालक रूप होने पर बहुत ही कम रह गया है । अब डाँट-फटकार की मात्रा ही बढ़ती जा रही है । अब छोटी-छोटी आज्ञा भी मेरे को मिलने लगी । माता को ऐसे मानों, पिता को ऐसे मानों, भाई-बहनों को ऐसे मानों तथा बड़ों के साथ ऐसा रहो, ऐसा बोलो, इस तरह बैठो, ऐसे चलो आदि आदि शिक्षा-दीक्षा मिलने लगी। जैसे ही चार-पाँच साल हुए कि गाँव-पड़ोस के बालकों के साथ विद्यालय जाने की बात होने लगी विद्यालय में दिन भर रहना पड़ता था, कोई लाड़-प्यार, दुलार करने वाला भी नहीं क्रियाशीलता व अनुभूति को समाप्त नहीं किया जा सकता है । इसलिये बालक के अन्तर्गत रहने वाला जीव उसी शान्ति और आनन्द की अनुभूति चाहता है जो वह आत्म-शक्ति रूप ब्रह्म-शक्ति से पाता रहा और उसके प्राप्ति के बगैर जीव को शान्त और स्थिर किया ही नहीं जा सकता है । इसके साथ ही वास्तविकता भी यही है कि वह शान्ति और आनन्द जब भी मिलेगी, उसी से मिल सकती है, अन्यथा साँसारिक किसी भी व्यक्ति-वस्तु अथवा शरीर-सम्पत्ति अथवा कामिनी-काँचन से उस शान्ति और आनन्द की अनुभूति कदापि नहीं हो सकती है । बालक जो क्रमशः युवक बन चुका है, तब तक स्थिर और शान्त भी नहीं हो सकता है ।
        सद्भावी सत्यान्वेषी गृहस्थ बन्धुओं ! बालक जो गुजरते आयु क्रम से युवक हो गया है । शारीरिक नाम-रूपों में फँसाने, साँसारिक जितनी भी सामग्रियाँ खान-पान पहनने-ओढ़ने आदि जो कुछ भी उसे मिल चुका था, उसमें तो वह शान्ति और आनन्द की खोज कर चुका था, परन्तु नहीं मिल पाया था । मिले भी तो कैसे जबकि उसमें है ही नहीं, तो जो चीज जहाँ होगी ही नहीं, वहाँ उसे लाख खोजा जाय तो क्या मिलने को है; कदापि नहीं । अब शारीरिक माता-पिता एवं संरक्षक आदि आप में सोचने-विचारने लगते हैं कि लड़का अब सयाना (युवा) हो गया है कहीं  इसकी शादी-विवाह यदि कोई आता या कहता तो कर-करा दिया जाय । यहाँ पर एक बात विचारणीय है कि लड़के के युवा होने और विवाह कर देने के सोच-विचार का वास्तविक भाव क्या है ? क्या युवा अर्थ विवाह से ही होता है; ब्रह्मचारी, सदाचारी, वैरागी आदि नहीं हो सकता है; बिल्कुल हो सकता है और वह यदि वास्तविकता जान-समझ जाय तो इन्हीं रूपों में महापुरुष बनते उसे देर नहीं लगती । विश्वास न हो तो दृष्टि दौड़ायेंगे तो स्पष्टतः दिख सकता है कि महापुरुषों में प्रायः अस्सी से नब्बे प्रतिशत महापुरुष बालक पन व युवावस्था के ही मिलेंगे, वृद्धावस्था के बहुत ही कम हैं । वास्तविकता तो यह है कि वास्तव में जिस शान्ति और आनन्द से युक्त ब्रह्म-शक्ति रूप अविनाशी दिव्य पिता-माता से बिछुड़ाकर,भटका कर अपने शारीरिक नाम-रूपों में नाना सम्बन्ध स्थापित कर-करा कर फँसाये थे, तो जब तक शिशु और बालक था, तो लाचार था परन्तु अब तो युवा हो गया है । अब जबर्दस्ती मनमाना डाँट-फटकार मार-पीट कर अपनी बात मनवायी नहीं जा सकती है तथा एक लड़की छोड़कर अपनी आवश्यकतानुसार प्रायः हर सामग्रियाँ तो उसे उपलब्ध करा ही चुके हैं फिर भी वह स्थिर रहे, शान्त रहे, यह कैसे सोच सकते हैं क्योंकि उसी स्तर से वह भी तो गुजर चुके हैं । इतना ही नहीं ये लोग अब यह भी जान समझ चुके हैं कि वह अब इन लोगों का होकर रह भी नहीं सकता है । वह तो परम्परा के अनुसार जान रहा है कि ये लोग हमारा विवाह करायेंगे ही, प्रायः बहुसंख्यक युवक यही करेंगे कि यदि माता-पिता यह विश्वास दिला दें, कि वे इसका विवाह नहीं करेंगे या नहीं करायेंगे तो इसमें सन्देह नहीं कि बहुसंख्यक युवक-युवतियाँ बेमरौवत इन लोगों को छोड़ कर स्वयं कहीं शादी-विवाह कर-करा कर कहीं रहने न लगें । यह जानकारी इन लोगांे को भी है ।  अब प्रश्न यह उठता है कि युवक ऐसा क्यों करेंगे, तो यह वे करेंगे नहीं, बल्कि उनका प्रारब्ध और स्वभाव ऐसा ही करवा देगा । थोड़ी देर के लिए इसे पढ़ते समय युवा भाई यह सोच सकते हैं कि ऐसी बात नहीं हो सकती है, तो उनका भी सोचना सही है कि उनकी भी आशा अभी लगी ही हुई है । वाह-वाही में तो इंकार कर ही देंगे परन्तु अपने अन्तःकरण से पूछें तो वास्तविकता का पता चल जायेगा । सवाल यह है कि सब अन्य सामग्रियाँ भोग कर देख लिए कि उसमें कोई खास आनन्द नहीं है।

    ‘आप युवक ये महापुरुष एंव सत्पुरुष क्यों नहीं हो सकते ?’ आप थोड़ा धीरज धारण कर, गम्भीरता पूर्वक सोच-समझकर स्वयं एकान्त में बैठकर निर्णय लेवें तथा स्वयं से एक बात पूछें कि आज क्या वह परमसत्ता नहीं है ? जो इन उपर्युक्त या ऐसे ही अन्य आध्यात्मिक महापुरुषों एवं तात्त्विक सत्पुरुषों जिनका नाम यहाँ छोड. दिया गया हो या छूट गया हो, उन महापुरुषों और सत्पुरुषों जैसा भी महापुरुष और सत्पुरुष बनाने वाला वही परमसत्ता आज भी नहीं है ? आज उसमें वह शक्ति-सामथ्र्य नहीं है ? वह अवश्य है । वही सदा रहने वाला है । वही सर्व शक्तिमान है । उसके शक्ति-सत्ता में कोई भी अपना दखल नहीं जमा सकता है । वही एकमात्र परमप्रभु सबका है, सबके लिए है । वह जब जिसको जो चाहे बना दे । जितना चाहे दे दे । जहाँ चाहे वहाँ भेज दे । वह सर्व शक्तिमान है, एकमात्र वही परमप्रभु मात्र ही महापुरुषत्त्व और सत्पुरुषत्त्व प्रदाता तो है ही, मोक्षदाता भी एकमात्र वही ही है । उसके सिवाय दूसरा कोई नहीं । किसी को कुछ भी बना देने का अधिकार एकमात्र परमप्रभु का है और सदा-सर्वदा परमप्रभु में ही रहेगा भी ।