पुत्र मुक्ति में सहयोगी नहींऋ बन्धन का हेत

पुत्र मुक्ति में सहयोगी नहींऋ
बन्धन का हेत
       सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक बन्धुओं ! ऐसा सुना-देखा जाता है कि समाज इस भ्रामक प्रचार का शिकार बन चुका है कि पुत्र उत्पन्न करना पुरुष हेतु एक अनिवार्य आवश्यकता है क्योंकि पुत्र के पिण्डदान से ही पितरों को मुक्ति होती है । जिसके कारण मुक्त नहीं होते, बल्कि नरकों में विभिन्न यातनाएँ झेला करते हैं अर्थात् जिसके पुत्र नहीं, वह अभागा है, सुबह-सुबह उसका मुख देखना पाप है आदि धारणा समाज को इतना ग्रसित किए हुए है कि इसके लिए प्रायः लोग इतने चिंतित, इतने परेशान रहते हैं कि जिसकी सीमा नहीं है । मात्र पुत्र हेतु ही नाना तीर्थो की यात्रा एवं स्नान, नाना प्रकार के टोटका, नाना प्रकार के तन्त्र-मन्त्र तथा सिद्ध महात्माओं के यहाँ जाना और पुत्र प्राप्ति की माँग करना आदि समाज को अपने में इतना ग्रसित किए हुए है कि इससे उबरना मुश्किल सा काम लगता है । आज के इस घोर नास्तिकता के युग में भी यह भ्रमपूर्ण धारणा अभी जनमानस में इतना छाया हुआ है कि लाखों-लाख आदमी आज ‘गया’ में पितरों को पिण्डदान देने के लिए पहुँचते हैं । कर्म काण्ड के इस भ्रामक धारणा से समाज को उबारना भी एक साधारण काम नहीं है । थोड़ा भी आदमी नहीं सोचता है कि मनुष्य खुद, स्वयं मुक्ति का उपाय शरीर रहते नहीं कर-करा लिया तो उसके मरने के बाद उसके पुत्र के पिण्डदान से वह मुक्त हो जायेगा ? कदापि नहीं ! जहाँ तक हमारी धारणा है कि करोड़ों जन्मों तक पुत्र दर पुत्र यदि पिण्ड दान देता रहे, तब भी मर कर गए हर नारकीय जीवों को मुक्ति की बात नहीं की जा सकती है । यह (पिण्ड दान) कर्म एक थोथा एवं हास्यास्पद जढ़ता एवं मूढ़ता के सिवाय कुछ नहीं है ।
       सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक बन्धुओं ! मुक्ति की कल्पना पुत्र उत्पन्न करने तथा उसके पिण्डदान से कदापि सम्भव नहीं, मुक्ति तो एक मात्र तत्त्वज्ञान रूप भगवद्ज्ञान से ही मिलती या होती है । तत्त्वज्ञान या भगवद् ज्ञान के वगैर मुक्ति की कल्पना ही व्यर्थ है । एक नहीं कोटि-कोटि बार जनम-मरण होवे तो क्या ? एक नहीं कोटि-कोटि कर्म किया जाय तो क्या ? परन्तु मुक्ति की कल्पना तत्त्वज्ञान या भगवद्ज्ञान के बिना सोचना तक अज्ञान है मिलने की तो बात ही नहीं है । परिवार एवं सन्तान सदा बन्धन का कारण एवं बन्धन का साधन मात्र रहे हैं, मुक्ति का नहीं । पुत्र तो माता-पिता (पति-पत्नि) के बीच दोनों प्यार और ममता को अपनी ओर मोड़ कर दोनों को माया-जाल में फँसाने का एक तीसरा साँसारिक साधन   है । सृष्टि के आरम्भ में जबकि जनसंख्या बढ़ाने का अभियान चल रहा था, उन्हीं अभियान में यह एक अभियान सूत्र था कि पुत्र उत्पन्न करना सबके लिए अनिवार्य आवश्यकता है । चूँकि मुक्ति ही मानव योनि का चरम और परम लक्ष्य है, इसलिए उस अभियान में पुत्र उत्पन्न करना मुक्ति का साधन है, ऐसा प्रजापतियों ने घोषणा और प्रचार कर दिया जिसमें मानव आज भी फँस कर अति परेशान हैं । जिस प्रकार आज बन-वृक्षों के कमी पड़ जाने के कारण वन-वृक्ष लगाओ अभियान में नाना प्रकार के अभियान सूत्र चला कर वन-वृक्षारोपण रूपी लक्ष्य की पूर्ति की जाती है । जैसे ‘एक वृक्ष, दस पुत्र समान’। पुनः वृक्ष लगाओं; पुण्य कमाओ ।’ ‘वृृक्ष लगाओ; मुक्ति पाओ ।’ आदि। प्रजापतियों (ऋषियों) ने संसार की रचना एवं संसार में मानव वृद्धि हेतु यह अभियान चला था कि पुत्र के वगैर मुक्ति नहीं । ऐसा अभियान प्रजापतियों ने चलाया था क्योंकि प्रजा उत्पन्न एवं प्रजा वृद्धि ही उनका लक्ष्य था और नारद, सनकादि आदि ब्रह्मर्षियों व देवर्षियों ने प्राणियों को मुक्ति हेतु उत्प्रेरित कर रखा था, तो प्रायः लोग सात्त्विक मति-गति के अधिक थे । इसलिए पारिवारिक बन्धन को तोड़-तोड़ कर मुक्त जीवन बशर करते थे, अधिकतर तपस्या करने लगते थे यानी पारिवारिक माया-मोहासक्ति नगण्य सी रह गयी थी और वंश वृद्धि के द्वारा संसार में मानव उत्पत्ति और  मानव विकास (बढ़ोत्तरी-जनसंख्या) प्रजापतियों का लक्ष्य विफल हो गया था । तब उन प्रजापतियों ने मुक्ति हेतु पुत्रोत्पत्ति तथा पिण्डदान की नयी प्रक्रिया चालू कर-करा कर एक साधन अभियान चलाया चूँकि प्रजापति ब्रह्मा के सन्तान होने के कारण सिद्ध और तत्कालीन समाज में मान्य एवं प्रतिष्ठित थे । इसीलिए उनके इस रहस्य को जाने वगैर कि प्रजा उत्पत्ति और जनसंख्या वृद्धि वाला इन लोगों का लक्ष्य विफल हो गया है, इसीलिए अपने लक्ष्यपूर्ति हेतु ही ये लोग अभियान सूत्र चला रहे हैं, आँख मूंद कर उनके बातों को मान कर उनका अन्धानुकरण करने लगे । आप बन्धुओं एक उदाहरण और देखें जनसंख्या अधिक हो जाने पर जिस प्रकार आज जनवृद्धि रोकने के लिए अनेकानेक सघन अभियान सूत्रों के साथ प्रचारित प्रसारित हो रहे हैं, जिससे प्रभावित होकर लोग वंश वृद्धि को सीमित करते जा रहे हैं, ठीक ऐसा ही उस समय ठीक इसके उल्टा उस समय अभियान चला था । या तो उसके उल्टा इस अभियान को मानकर बात समझें या इसके उल्टा उस अभियान को मान कर बात  समझें । दोनों बात एक ही है । वह कमी से वृद्धि का अभियान  व अभियान सूत्र चला था और वृद्धि से कमी का अभियान एवं अभियान सूत्र चल रहा है । अर्थात् पुत्र मुक्ति हेतु न तो आवश्यक होता है और न अनावश्यक ही । बन्धुओं ! परिवार एवं पुत्र सदा ही ममता-मोह रूपी माया के जाल-पाश बन्धन  हैं । परिवार एवं पुत्र सदा ही  बन्धन के  साधन होते हैं मुक्ति के नहीं; तथा पितरों हेतु पुत्र द्वारा पिण्डदान की क्रिया-प्रक्रिया समाज को फँसाने वाले मोह-पाश का ही एक अंग है । अन्यथा पिण्डदान से कुछ होता जाता नहीं । मुक्ति का हेतु पुत्र एवं पिण्डदान कदापि नहीं होता है, बल्कि मुक्ति का हेतु तो एकमात्र तत्त्वज्ञान या भगवद्ज्ञान ही होता है, अन्यथा कोई नहीं । योग से भी मुक्ति नहीं होती, और को कौन कहे ।
                         पुत्र से नाम-यश की आशा भी व्यर्थ ही
     सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक बन्धुओं ! समाज में दूसरी भ्रामक एवं प्रतिकूल धारणा यह फैली हुई है कि पुत्रोपत्ति से ही नाम-यश की वृद्धि होती है तथा पीढ़ी दर पीढ़ी पुत्र से ही नाम चलता है, जिसको पुत्र नहीं, उसका नाम संसार में बुत यानी समाप्त हो जाता है । इस प्रकार की प्रतिकूल एवं भ्रामक धारणा भी समाज में इतना गहरे रूप से बैठ गया है कि इस सामाजिक प्रतिकूल धारणा से भी समाज को उबार कर समाज कल्याण के अनुकूल बनाना भी आसान काम नहीं रह गया है । इस प्रतिकूल धारणा को भी अनुकूल बनाते हुए समाज को कल्याण पथ पर ले चलना भी इस जमाने में प्रभु पर ही आधारित है । यह बात सही ही है कि दुनिया अनुकूल एवं प्रतिकूल, पक्ष एवं विपक्ष, असत्य एवं सत्य, जड़ एवं चेतन, दोष एवं गुण, अधर्म एवं धर्म, अन्याय एवं न्याय, अनीति एवं नीति, स्त्री एवं पुरुष, रात एवं दिन, अंधेरा एवं उजाला,  झूठा  एवं सच्चा, बुराई एवं अच्छाई आदि आदि दोनों के संयुक्त मेल-मिलाप का रूप ही दुनिया है, फिर भी दोनों का अपना- अपना कार्य क्षेत्र होता है । दोनों एक दूसरे पर सदा हावी (प्रभावी) होना चाहते एवं समयानुसार होते भी रहते है । दोनों ही जब तक अपने-अपने कार्य क्षेत्र में रहते-चलते-करते-भोगते हैं, तब तक तो सामान्य तरह से संसार यानी साँसारिक गति-विधि चलती होती रहती है । परन्तु जैसे ही एक दूसरे पर बढ़ने या प्रभावी होने की कोशिश करना एवं होड़ लगाना प्रारम्भ करते हैं, तब ही सामाजिक या साँसारिक गड़बड़ी या हलचल होना शुरु हो जाता है । हालाँकि यह विरोध, संघर्ष एवं लड़ाई आज की ही नहीं अपितु प्राचीन  काल आदि सृष्टि से ही होती चली आ रही है; अनेकानेक भीषण संघर्ष, भयानक युद्ध, एवं रक्तपात से युक्त घटनाएँ घट चुकी हैं उदाहरणार्थ देवासुर संग्राम, राम-रावण युद्ध, महाभारत, प्रथम-विश्व युद्ध एवं द्वितीय विश्व युद्ध आदि । आज भी उसी स्थिति के अन्तिम दौर पर पहुँच चुकी है । तृतीय विश्व-युद्ध की तैयारी भी पूरी हो चुकी है । पुनः लग रहा है कि कोई दूसरा नया श्री कृष्ण किसी दूसरी नई श्रीमद्भगवद्गीता की तैयारी में लगा  है । इसीलिए यह तृतीय विश्व युद्ध भी तब तक के लिए शायद रुका हुआ है, जैसे ही श्रीमद् भगवद्गीता पूर्ण हो जायेगी, वैसे ही पुनः तृतीय विश्व युद्ध का बिगुल बज जायेगा। लग रहा है कि वह क्षण भी अब दूर नहीं  है कि नई गीता पूर्ण हो और बिगुल बज जाय। यह हमेशा को नीति-रीति रही है कि पहले पहल असत्य ही सत्य पर, अधर्म ही धर्म पर, अन्याय ही न्याय पर, अनीति ही नीति पर धावा बोलते हैं, आक्रमण करते हैं, उन पर हावी प्रभावी  होते जाते हैं, जिसका कुपरिणाम यह होता है कि असत्य सत्य को, अधर्म धर्म को, अन्याय न्याय को, अनीति नीति को ही प्रायः समूल समाज या संसार से समाप्त कर-करा देना चाहते हैं । परन्तु ये चारों-- सत्य, धर्म-न्याय-नीति ही भगवान् के चार चरण होते हैं ।
      सद्भावी सत्यान्वेषी बन्धुओं ! सत्य-धर्म-न्याय-नीति; असत्य-अधर्म- अन्याय एवं अनीति के जोर-जुल्म, अत्याचार-भ्रष्टाचार आदि क्रूरतापूर्ण धावा, संघर्ष, आक्रमण कर समाप्ति की अवस्था के करीब पहुँचा देते हैं और सत्य-धर्म-न्याय-नीति समाप्ति के अन्तिम स्थिति में पहुँच कर अन्तिम श्वाँस-निःश्वाँस लेना शुरु कर देते हैं, तत्पश्चात् अति दारुण्य एवं करुण क्रन्दन आसमान को चीरता हुआ परम आकाश रूप परमधाम में स्थित सत्य-धर्म-न्याय-नीति के पोषक एवं संरक्षक रूप सर्व शक्ति-सत्ता सामथ्र्य रूप परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप परमब्रह्म तक पहुँचता है, तब वे वहाँ से अपनी शक्तियों के साथ भू-मण्डल पर अवतरित होकर किसी मानव शरीर को धारण कर उसी के माध्यम से सर्व प्रथम यत्र-तत्र सर्वेक्षण-निरीक्षण का कार्य सम्पादन कर परीक्षण का कार्य  आरम्भ करते हुए अपना असल रूप परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप परमब्रह्म को तत्त्वज्ञान रूप भगवद्ज्ञान रूप सत्य ज्ञान द्वारा अपने श्रद्धालु एवं निष्कपटी अनन्य भक्तों के बीच प्रकट करते हुए उन्हीं भक्तों, सेवकों तथा अनन्य प्रेमियों  के माध्यम से अपने अवतरण की घोषणा समाज में कर-करवा देते हैं कि परम ब्रह्म परमेश्वर का परमधाम से भू-मण्डल पर अवतार हो चुका  है। जो कोई जिस प्रकार जानना-देखना एवं परीक्षण करना चाहता है, कर सकता है । इस प्रकार क्रमशः शान्तिमय ढंग से जानने-देखने तथा बात-चीत करते हुए बोध के साथ ही पहचानने की घोषणा होती है; पुनः समझौता पूर्व कि हमारे सत्य-धर्म-न्याय-नीति स्तर तक समझौता करके जानने-देखने तथा बात-चीत करते- कराते हुए कार्यो के द्वारा पहचानने का कष्ट करें, तत्पश्चात् बार-बार सूचना, चेतावनी देते हुए घोषणा कर देते हैं कि ठीक है, आप जैसे चाहें, वैसे ही परीक्षण करें और संघर्ष एवं युद्ध का क्रम प्रारम्भ हो जाता है । इस प्रकार अब तक की तो ही बात रही है कि परम प्रभु के अवतार रूप अवतारी शरीर के द्वारा परम प्रभु ही असत्य-अधर्म-अन्याय एवं अनीति को सफाया (समाप्त) करके पुनः सत्य-धर्म-न्याय-नीति को स्थापित करते हुए सत्पुरुषों का राज्य कायम करते हैं । पुनः इस बार भी अन्ततः यही होगा यानी सत्य-धर्म-न्याय-नीति ही संस्थापित होगी तथा पुनः पूरी दुनियाँ पर ही सत्पुरुषों का राज्य कायम होगा । होना ही है ।
        सद्भावी सत्यान्वेषी बन्धुओं ! समाज में फैली यह धारणा कि पुत्र से ही समाज में नाम-यश कायम होता है असलियत के बिल्कुल ही प्रतिकूल है क्योंकि बन्धुओं कम से कम आप भी तो थोड़ा-बहुत देखें कि पुत्र वाले किसी गृहस्थ व्यक्ति का नाम यदि बहुत चलता है तो तीन से चार पीढ़ी (वंश) तक पाँचवीं पीढ़ी तक तो नाम ऐसा मिट जाता है कि चाह कर भी खोजने पर नहीं मिल पाता है । आप बन्धु ही  बतायें कि क्या यह सत्य बात नहीं है ? पुनः यश की बात है तो पुत्र से या पौत्र या प्रपौत्र से किसी को यश नहीं मिलता है । यश-अपयश का भागी मनुष्य अपनी कृतियों के आधार पर ही पाता है । यदि कोई कृति न हो तो पुत्र कितना यश दे सकता है । इस प्रकार पुत्र से नाम-यश दोनों का क्षणिक लाभ जरूर मिलता है परन्तु स्थाई नहीं । स्थाई रूप में दूरदर्शिता से देखा जाय, तो यश-अपयश स्थाई अपनी ही वृत्ति-कृति से प्राप्त होता है। पुत्र ही पिता के शरीर छोड़ने या मरने के बाद नाम कागजातों से समाप्त कराता है । पुत्र पिता का नाम कहीं चढ़वाता नहीं है अपितु सभी स्थानों से समाप्त करवा देता है । तब भी यह मानना कि पुत्र ही से नाम समाज में चलता है बिल्कुल ही प्रतिकूल एवं भ्रमपूर्ण है । हाँ, जब पुत्र महापुरुष एवं सत्पुरुष हो जाता है तो उसके पूर्वज एवं वंशज नाम-यश पाते हैं ।
                    परिवार एवं पुत्र बन्धनकारी एवं विनाशक
      सद्भावी सत्यान्वेषी बन्धुओं ! परिवार एवं पुत्र को किसी भी परिस्थिति में मुक्ति का हेतु मानना अपने अज्ञान एवं जढ़ता-मूढ़ता को अपने द्वारा ही स्वीकार करना   होगा । परिवार एवं पुत्र जाने-अनजाने पुरुष पर एक अत्यन्त ही बोझिल-बोझ या भार होता है जिसको लेकर अपने जीवन के लक्ष्य रूप सर्वोच्च प्राप्ति रूप मुक्ति-अमरता के बोध के साथ ही अद्वैत्तत्त्वबोध रूप मुक्ति बोध तक पहुँचना बिल्कुल ही असम्भव बात है, हाँ अपवाद स्वरूप एक आध अवश्य पहुँचे हैं, परन्तु  इसे पहुँचने का सहज सिद्धान्त नहीं माना जा सकता है। यह पहुँचना अपवाद स्वरूप ही रह सकता है । हाँ, यह बात उस समय मात्र उतने समय के लिए सहज सिद्धान्त रूप मंे लागू एवं स्वीकार हो सकता है जिस समय परम आकाश रूप परम धाम से परम प्रभु का भू-मण्डल पर अवतरण हुआ हो और वह अवतारी शरीर जितने को अपने सम्पर्क, अपने तत्त्वज्ञान द्वारा भक्ति के सम्पर्क तथा जितने उनके साथ भाव-भक्ति-सेवा-प्रेम में लगे रहते हैं, वे चाहे जैसे भी रहें यदि परम प्रभु को स्वीकार हो तो परम प्रभु के भू-मण्डल पर रहने तक तो प्रायः वे सभी ही मुक्ति के योग्य हो जाते हैं, जिस पर परम प्रभु की दया दृष्टि हो जाती है । परन्तु उस समय के पश्चात् पुनः मुक्ति और अमरता का स्थाई सहज सिद्धान्त ही लागू रहता है अर्थात् अनन्य भगवद् भक्त, अनन्य भगवद् सेवक एवं अनन्य भगवद् प्रेमी ही मुक्ति और अमरता  को प्राप्त कर सकता है । अन्यथा कर्म काण्ड चाहे जैसा भी हो उससे मुक्ति और अमरता की कल्पना भी नहीं की जा सकती है, प्राप्ति की तो बात ही नहीं है ।
        इस प्रकार परिवार एवं पुत्र माया-मोह-ममता-वासना रूप बन्धन को ही उत्पन्न एवं विकसित करने वाले होते हैं । परिवार एवं पुत्र के बन्धन को काटे वगैर मुक्ति की बात सोचनी ही व्यर्थ होती है । परिवार एवं पुत्र भी कायम रहे और मुक्ति भी मिले ऐसे सोचने व चलने वाले को एक ही उदाहरण से विभूषित किया जा सकता हैं कि ग्राह (घडि़याल) को सूखी लकड़ी जान-मान कर नदी पार करने जैसी बात ही होती है । अर्थात् लकड़ी जान-मान कर घडि़याल को पकड़ने जायेंगे दरियाव (नदी) पार करने के लिए तो वह लकड़ी रूप घडि़याल उनका आहार बना कर खा कर समाप्त ही कर देगा, पार की बात ही नहीं रह पायेगी, बीच में ही समाप्त हो जाना पड़ेगा । ठीक यही स्थिति परिवार को साथ-साथ पकड़े रहकर मुक्ति और अमरता को प्राप्त करने की चाह रखने वाले बन्धुओं की भी होती है । इसलिए हम तो उन समस्त बन्धुओं से बार-बार साग्रह निवेदन करेंगे कि परिवार के तुुच्छ एवं क्षणिक सुखाभास को तथा पुत्रादि के ममता-मोह रूप बन्धन को पीछे छोड़ कर ऊपर उठने हेतु अपने समक्ष उपस्थित भू-मण्डल पर अवतरित परम प्रभु को सर्वतोभावेन समर्पण भाव में रहते  हुए भगवद् शरणागत होकर परम शान्ति और परमानन्द के साथ ही मुक्ति और अमरता को प्राप्त करें । यही मानव जीवन का चरम और परम लक्ष्य होता है । आये हुए ऐसे सुअवसर को हाथ से जाने न दें, अन्यथा बाद में पछताना ही हाथ लगेगा।
         सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक बन्धुओं ! परिवार एवं पुत्र को बन्धनकारी कहा जा रहा है, इसका सबसे बड़ा आधार है कि जो जीव आत्म रूप में  प्रारम्भ में तो भगवान् के अन्तर्गत  ही अन्तर्निहित था, जो परम प्रभु यानी भगवान् की प्रेरणा से भगवान् से ही ‘आत्म’ शब्द रूप में अलग होकर ‘आत्म’ ही ज्योति से युक्त आत्म-ज्योति परमात्मा से निकली थी अथवा ब्रह्म-ज्योति जो परमब्रह्म से निकली थी अथवा दिव्य ईश्वरीय ज्योति जो परमेश्वर से निकली थी अथवा नूर जो अल्लाहतआला से प्रकट हुई थी, अथवा सोल या डिवाइन लाइट या लाइफ लाइट जो गाॅड से निकली थी, उस समय यह जीव संस्कार बीज रूप में उसी ब्रह्म-ज्योति में ही था जो प्रारब्ध कर्म के अनुसार सृष्टि क्रम में शरीर में प्रवेश किया । पुनः वह गर्भस्थ शिशु शरीर जिसमें ब्रह्म ज्योति से युक्त ब्रह्म-शक्ति ही शरीर में प्रवेश किया था परन्तु शरीर में प्रवेश पाते ही, वह ब्रह्म शक्ति माया के क्षेत्र में प्रवेश करने से दोष-गुण से युक्त होकर ब्रह्ममय जीव हो गया, तो ब्रह्ममय जीव से युक्त शरीर जब तक गर्भस्थ शिशु शरीर रहा, तब तक तो वह ब्रह्ममय ही था, परन्तु गर्भ से बाहर आते ही शारीरिकों (माता-पिता-संरक्षकादि) द्वारा वह ब्रह्म सम्पर्क कराने वाला ब्रह्म नाल कटवा दिया गया, जिससे शिशु शरीस्थ जीव का सम्पर्क जो ब्रह्म से था, वह भी  कट गया, । अब यह मात्र शरीरमय जीव रह गया । पुनः बीतते दिन के क्रम से आगे- पीछे, अगल-बगल यानी चारों तरफ से ही शारीरिक ‘हम’ का अभ्यास उस पर होने लगा कि हम (शरीर) ही तुम्हारी माँ है, हम (शरीर) ही तुम्हारे पिता हैं, हम (शरीर) ही तुम्हारे भाई हैं आदि सब ही चारों तरफ से शरीर को ही हम मानने कहने वालों के लगातार अभ्यास से बालक का शरीर में रहते हुए भी जीव भाव रूप जो शरीर से पृथक् भाव था, वह भी शरीर भाव में लय हो गया तथा अब शिशु भी अपने शरीर को ही अपना मैं (जीव) मानने-जानने लगा । कुछ दिन-माह-वर्ष बीता नहीं कि शरीर का नामकरण कर दिया गया और उसी के माध्यम से हमें पुकारा यानी बुलाया जाने लगा और उस नाम से ही हमको बोलने को कहा गया तथा यह भी कहा गया कि यही नाम तुम्हारा नाम है । इस प्रकार शारीरिक नाम-रूप वाला ‘मैं’ भी शरीर ही हो गया और शरीर भाव में ही कहा-सुना-बोला आदि व्यवहरित होने लगा । पुनः बीतते समय और बढ़ते शरीर के क्रम में युवा हुआ । तब पुनः मुझे अकेलापन खटकने लगा क्योंकि जब मैं (जीव) ब्रह्म था तब भगवद् सम्पर्क के कारण भगवद्मय रहता हुआ सच्चिदानन्द, परमानन्द या सदानन्द में लीन रहता था । पुनः जब चिदानन्द ब्रह्मानन्द में मगन रहता था जब ब्रह्म से भी सम्पर्क कट गया । तब पुनः शरीर में रहते हुए भी जीव भाव में रहता हुआ आनन्द में ही लीन एवं मगन रहने लगा । पुनः जब जीव भाव भी शरीराभ्यास से समाप्त हो गया तो मात्र मैं शरीर भाव में रहता हुआ पीने-खाने में लीन और मगन रहने लगा, परन्तु जब युवा हुआ हूँ, तब तो अकेलापन महसूस होने लगा, वह भी प्यार और ममता तो समाप्त ही हो गया क्योंकि कि माता का का बराबर सम्पर्क और ममता-प्यार शिशु भाव तक तो मिलता रहा, परन्तु बालक रूप बड़ा होने लगा तो विद्या युक्त करने के लिए ही पाठशाला पुनः विद्यालय भेजा जाने लगा ।
     चूँकि सर्व प्रथम तो ‘मैं’ परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप परमब्रह्म में ही था, वह भगवत्तत्त्वम् रूप परमब्रह्म रूप सर्वसत्ता-शक्ति- सामथ्र्य से युक्त था । परन्तु यह विद्या शुष्क शक्ति-सत्ता रहित दिखलायी दिया, जबकि उस भगवत्तत्त्वं रूप में परमब्रह्म रूप सर्व शक्ति-सत्ता-सामथ्र्य युक्त होने के कारण वह ‘विद्यातत्त्वम्’ अपने आप में परमशान्ति और परम आनन्द के साथ ही साथ मुक्ति और अमरता से युक्त था। परन्तु यह विद्या (शिक्षा) तो बिल्कुल ही शुष्क, शान्ति रहित एवं आनन्द शून्य तो है ही, साथ ही साथ कर्म बन्धन (नौकरी) में फँसाने वाली तथा विनाशशील शरीर के उत्पत्ति व विकास वाली है ।
      इस प्रकार विद्या (शिक्षा) जो शान्ति और आनन्द से शून्य तथा बन्धन और विनाश से युक्त जान-देख कर पुनः अकेलापन की परेशानी जाने-अनजाने होने लगी । इस प्रकार इस शुष्क एवं शून्य तथा बन्धन वाली विद्या (शिक्षा) को सीखते हुए बीतते समय क्रम में शरीर युवा हुआ और अकेलापन महसूस होता-हुआ शुष्क एवं शून्य सा हो गया । तत्पश्चात् शारीरिक माता-पिता एक अन्यत्र से किसी युवती से जो कि काम-क्रोध-लोभ-मोह-माया-ममता-वासना आदि की साक्षात् मूर्ति ही थी, जिसके सम्पर्क से कष्ट और दुःख के अलावा यदि और कुछ मिलने वाला था तो वह मात्र भोग-व्यसन के रूप में स्त्रीपाश (बन्धन) और विनाश ही बाकी था, जो पुत्रोत्पन्न के माध्यम से भविष्य में मिलता है ।
       इस प्रकार बन्धुओं थोड़ा भी गौर करके जानने-समझने की कोशिश करें, तो असलियत का पता चल जायेगा कि परिवार से मैं उत्थान और मुक्ति को प्राप्त हुआ है अथवा पतन और बन्धन के माध्यम से विनाश को । विनाश तो अगले पैरा में देखना है भगवन्मय ब्रह्म से ब्रह्ममय जीव, पुनः ब्रह्ममय जीव से जीवमय शरीर; पुनः जीवमय शरीर से माता-पिता शरीरमय शरीर; पुनः माता-पिता शरीर मय शरीर से शुष्क एवं शून्य तथा बन्धन एवं विनाश से युक्त विद्या (शिक्षा) मय शरीर पुनः शिक्षामय शरीर से कामिनी और कांचनमयशरीर। सच्चिदानन्द रूप परमशान्ति और परम आनन्द से युक्त मुक्ति और अमरता के  बोध से बिछुड़ कर चिदानन्द रूप शान्ति और आनन्द से तथा ब्रह्मानन्द रूप अनुभूति पर आया, पुनः इससे बिछुड कर आनन्दानुभूति पर आया; पुनः इससे भी बिछुड़ कर शुष्क एवं शून्य रूप अकेलापन एवं उदासी शरीर पर आया और अब सबसे बिछुड़ कर सभी अवगुणों, सभी कष्टों एवं सभी दुःखों के खान रूप साक्षात् स्त्री पाश और काँचन में अटका हूँ। अब परिवार की बात आप बन्धु स्वयं सोच-समझ कर बतावें कि क्या यह गलत है ? कदापि नहीं ।
       सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक बन्धुओं ! अब तो समझ में आ ही गया होना चाहिए कि परिवार अथवा स्त्री एवं पुत्र उत्थान एवं मुक्ति में सहयोग देने वाले हैं, कि पतन एवं बन्धन और विनाश में सहयोग देने वाले ? अब यहाँ पर यह देखा जाय कि परिवार एवं पुत्र अमर बनाने वाले होते हैं कि मृत्यु एवं विनाश करने वाले।
       बन्धुओं जब परिवार के सभी सदस्य मात्र शरीर ही हैं, शरीर के अलावा जीव-आत्मा तथा परमात्मा आदि कुछ भी नहीं, एकमात्र शरीर ही हैं । शरीर ही माता, शरीर ही पिता, शरीर ही भाई, शरीर ही बहन, शरीर ही पति, शरीर ही पत्नि, शरीर ही पुत्र, शरीर ही पुत्री, शरीर ही हित, शरीर ही मित्र, शरीर ही दुश्मन, शरीर ही शत्रु आदि सम्बन्द्दी-सम्पर्की मात्र केवल शरीर ही हैं और शरीर मात्र से ही मोह, ममता, आसक्ति एवं सारा सम्बन्द्द भी है, तब शरीर जब मुर्दा (मृतक) हो जाता है, तब ये ही माता-पिता, पति-पत्नि, भाई-बहन, पुत्र-पुत्री, हित-मित्र, सगा-सम्बन्धी जन शरीर को जला कर अथवा गाड़ (मिट्टी दे) कर अर्विंा जल-प्रवाह करके बर्वाद या समाप्त क्यों कर देते हैं ? आज उस शरीर को अपने नाना प्रकार के सम्बन्धों के माध्यम से पुकार कर क्यों नहीं बुलाते हैं, क्यों नहीं ममता-प्यार देते हैं, क्यों नहीं साथ, सहयोग देते हैं, शरीर में क्या मर गया, क्या समाप्त हो गया, कि आज वही उसके प्रेमी, सगा-सम्बन्धी, हित-मित्र ही समाप्त करने पर लगे हैं ? ऐसा क्यों करते हैं ? ममता-प्यार कहाँ चला गया ? क्या आज वे माताजी नहीं रहीं ? क्या आज वे पिता जी नहीं रहे ? क्या आज वे भाई साहब नहीं  रहे ? क्या आज वे पतिदेव नहीं रहे ? क्या आज प्राण-प्रिया पत्नि नहीं रही ? आज वे हित-मित्र नहीं रहे ? क्या आज वे शरीर नहीं रहे ? शरीर तो वही आज भी है फिर ये सभी सम्बन्द्द कहाँ चले गये ? आज सभी का मोह-ममता-प्यार कहाँ चला गया ? क्या जब वह शरीर क्रियाशील थी, तभी तक सभी के सम्बन्ध थे, आज नहीं ? क्या वह शरीर क्रियाशील थी तभी तक उसकी रक्षा-व्यवस्था थी, आज नहीं ? क्या वह शरीर क्रियाशील थी तभी तक सभी के अपनत्त्व और सम्बन्ध थे, आज नहीं ? ऐसा क्यों हो रहा है भाई ? यह तो गजब स्वार्थ की बात हुई कि जब तक वह क्रियाशील था, स्वार्थ सध रहा था तब तक सब अपने थे । सब रक्षक एवं सहयोगी थे और आज वही सभी अपने ही उसी अपने लगने वाले शरीर के भक्षक बने हुए हैं आप लोग आज ऐसा क्यों कर रहे हैं ?
       यदि आप कह दें कि मर गया है, मुर्दा हो गया है तो कैसा मुर्दा हो गया है ? जो शरीर था वह तो आज भी है तो फिर कौन और क्या मर गया ? वह जब एकमात्र शरीर ही था, शरीर से पृथक् कुछ था ही नहीं, तो शरीर तो है ही, फिर मर क्या  गया ? यदि आप कहते हैं कि जीव निकल गया, तो जीव तो आप जानते ही नहीं हैं कि जीव भी कुछ होता है, फिर आज आपके दिमाग में जीव शब्द कहाँ से आ गया ? जीव यदि निकल ही गया तो उससे तो आप लोगों को कोई मतलब था नहीं, मतलब तो था शरीर से और शरीर है ही । फिर शरीर को ही आप समाप्त या विनष्ट क्यों कर रहे हैं ? यानी इसीलिये आप सम्बन्ध किये थे कि एक दिन समाप्त कर दें या विनाश के मुंह मेें डाल देंगे । धिक्कार है ऐसे अपने लोगों को जो अपने ही हाथों अपना कहने वाले शरीर का विनाश कर-करा देते हैं । धिक्कार है ऐसे सम्बन्धों को कि जब तक क्रियाशील रहे स्वार्थ सध रहा था तब तक  तो अपना है रक्षा करो, सहयोग करो और अब जब स्वार्थ सधना रूक गया तो  समाप्त कर दो, विनाश के मुख में डाल दो । कागजों से इसका नाम भी खत्म करके अपना चढ़ा-चढ़वा दो कि इसका नाम-निशान न रह जाय। सब मिटा दो । धिक्कार- धिक्कार ! है ऐसे अपनत्त्व का ।