हम और हमार--तू और तोहार

हम और हमार--तू और तोहार
       परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् से छिटक कर ‘आत्म’ ‘शब्द’ रूप में अलग हुआ । पुनः ‘आत्म’ शब्द ‘सः’ शब्द में परिवर्तित हुआ और ‘सः’ शब्द ‘अहम्’ बनते या होते हुए तुरन्त सोऽहँ शब्द-रूप में कायम रहा । पुनः सोऽहँ में जब ‘सः’ (यानी ब्रह्म) से सम्बन्ध कट जाता है, तब मात्र ‘अहम्’ रह गया जो बाद में ‘हम-हम’ करते हुए जनमानस में उच्चरित होने लगा । अन्ततः वह ‘हम’ या ‘मैं’ नाना प्रकार के शरीरों में जुट-जुट कर शारीरिक नामों या रूपों में छिप जाता है । इस कारण यह यथार्थतः पता लगा पाना कि  ‘हम’ अथवा ‘मैं’ कौन है, क्या है, कहाँ से आया है, कहाँ रहता है -- आदि बहुत दुरूह हो गया ।
‘हम’ अथवा ‘मैं’ क्या है ?
‘हम’ अथवा ‘मैं’ कौन है ?
‘हम’ अथवा ‘मैं’ कहाँ से आया है ?
‘हम’ अथवा ‘मैं’ कहाँ रहता है ?
‘हम’ अथवा ‘मैं’ किसका है ?
       सद्भावी सत्यान्वेषी बन्धुओं ! अब आइये हम लोग इन उपर्युक्त प्रश्नों पर बारी-बारी विचार-मन्थन, साधना और तत्त्वज्ञान पद्धति आदि से यथार्थतः इनके बारे में जानकारी करते हुए इनका पहचान करें। तत्पश्चात् जो यथार्थतः सत्य हो उससे जुट कर अथवा एक होकर अपने गन्तव्य लक्ष्य को प्राप्त करते हुए मुक्त जीवन जीयें ।

 ‘हम’ या ‘मैं’ क्या है ?
     ‘हम’ अहम् का ही अपभ्रंश है अर्थात् ‘हम’ अहम् का ही बिगड.ा हुआ उच्चारण युक्त ‘शब्द’ है जो सदा-सर्वदा चेतनता ;ब्वदेबपवनेदमेेद्ध से युक्त रहते हुये ही प्रयुक्त होता है । दूसरे शब्दों में,  अहम्-अहम् कहते-कहते जो संस्कृत का एक शब्द है और जिसका अर्थ अथवा जिसका हिन्दी उच्चारण ‘मैं’ होता है, हिन्दी में ‘हम-हम’ अथवा ‘मैं-मैं’ कहा जाने लगा ।
       ‘हम’ अथवा ‘मैं’ न तो किसी शरीर को ही कहा जाता है और न ‘हम’ कोई वस्तु या पदार्थ ही होता है । तब प्रश्न यह उठता है कि जब ‘हम’ शरीर है ही नहीं, कोई वस्तु है ही नहीं, तो यह है क्या ? विचार करने और शोध करने पर आभास हुआ कि ‘हम’ शरीर और वस्तु तो बिल्कुल ही नहीं है । यह तो शब्द-सत्ता से युक्त अस्तित्त्व ;म्गपेजमदबमद्ध है जो शरीरों से युक्त रहने पर प्रयुक्त होता रहता  है । नासमझदारी के कारण अज्ञानी व्यक्ति शरीर को ही ‘हम’ अथवा ‘मैं’ समझ बैठता है जो भ्रम एवं भूल के अलावा और कुछ है ही नहीं ।                                  
                               ‘हम’ या ‘मैं’ शरीर नहींऋ
                                   बल्कि शरीर हमारी है
     ‘हम’ न तो शरीर का कोई अंग है और न तो शरीर ही है । पुनः ‘हम’ न तो कोई वस्तु है और न कोई पदार्थ ही है । यह ‘हम’ अथवा ‘मैं’ तो एक ‘अस्तित्त्व’ ;म्गपेजमदबमद्ध है जो शब्द-सत्ता से प्रयुक्त होता है । शरीर ‘हम’ का एक चलता-फिरता घर के रूप में अथवा संसार में कर्म करने तथा उसका भोग भोगने हेतु समस्त साधनों से युक्त सवारी के रूप में सृष्टि के अन्तर्गत श्रेष्ठतम् एवं सर्वोत्तम किस्म का एक विचित्र यन्त्र या मशीन है ।
     ‘हम’ अथवा ‘मैं’ इस शरीर रूप विचित्र यन्त्र का चालक नियुक्त है। विचित्र यन्त्र रूप यह शरीर आत्म-शक्ति अथवा ब्रह्म-शक्ति द्वारा चालित होता है जिसका संचालक या एकमात्र स्वामी परम आकाश रूप परमधाम में बैठा हुआ परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप परमब्रह्म-परमेश्वर या परमात्मा या सातवें आसमान में बैठा हुआ कादिर मुतलक अल्लाहतआला है ।
      अतः आत्म-शक्ति अथवा ब्रह्म-शक्ति द्वारा चालित शरीर एक विचित्र  यन्त्र है जिसका चालक नियुक्त है जीव और तीनों -- आत्म शक्ति या ब्रह्म शक्ति, जीव रूप चालक  एवं शरीर रूप विचित्र यन्त्र तीनों का एकमात्र स्वामी या संचालक के रूप में परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप परमब्रह्म या परमेश्वर या परमात्मा या अल्लाहतआला ही सदा-सर्वदा शाश्वत् या अमरता एवं सर्वशक्ति-सत्ता सामथ्र्यवान् रूप में परमधाम या अमरलोक या सातवाँ आसमान में विराजमान रहते हैं । वे ही युग-युग में अपने विशिष्ट प्रतिनिधियों के करुण पुकार पर इस धराधाम पर आते हैं और समस्त प्रकार (किस्म) के ‘हम-हमार’ ‘तू-तोहार’ अथवा ‘मैं-मेरा’ ‘तू-तेरा’ रूप झगड़ों का रहस्य यथार्थतः जनाते, दिखाते, समझाते और परिचय- पहचान-परख  कराते हुए सत्य और न्याय के साथ ‘ठीक’  करते हैं अथवा न्याय संगत फैसला देते हैं ।
       अन्ततः ‘हम’ अथवा ‘मैं’ शरीर और कोई वस्तु नहीं है बल्कि सृष्टि  के श्रेष्ठतम् और सर्वोत्तम किस्म का एक विचित्र यन्त्र रूप शरीर का चालक रूप जीव है। यह परमात्मा द्वारा प्रदत्त आत्म-शक्ति द्वारा शरीर चलाता रहता है । यह ‘हम’ अथवा ‘मैं’ इस यन्त्र रूप शरीर का चालक मात्र होता है, स्वामी या मालिक नहीं ।
 
‘हम’ अथवा ‘मैं’ कौन ?
     ‘हम’ अथवा ‘मैं’ परम आकाश रूप परमधाम में सदा-सर्वदा शाश्वत्  या अमरता अथवा सर्वशक्ति-सत्ता सामथ्र्यवान रूप में निवास करने वाले परमतत्त्वं रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप परमब्रह्म-परमेश्वर या परमात्मा या अल्लाहतआला रूप परमप्रभु का प्रतिविम्बवत्  एक उन्हीं का प्रतिनिधि अथवा सामान्य कर्मचारी होता है । यह ‘हम’ अथवा ‘मैं’ शरीर तो कदापि नहीं है । हाँ, शरीर इसके साधन के रूप में  एक चलता-फिरता सर्वाेत्तम किस्म का यन्त्र होता है जिसके माध्यम से ‘हम’ अथवा ‘मैं’ (जीव) संसार में ही नहीं अपितु ब्रह्माण्ड अथवा सम्पूर्ण  सृष्टि  के अन्तर्गत जानकारियों को जान एवं कार्यों को बहुत ही सुलभ रूप में कर सकता है ।
 ‘हम’ या ‘मैं’ माता-पिता, भाई-बहन, 
                    पुत्र-पुत्री तथा हित-नात आदि कदापि नहीं
      ‘हम’ अथवा ‘मैं’ जब शरीर है ही नहीं, तो इसके माता-पिता, भाई-बहन, पुत्र-पुत्री, मौसी-मौसा, बुआ-फूफा, हित-नात, सगा-सम्बन्धी आदि होने का सवाल ही नहीं बनता है । इतना ही नहीं, यथार्थतः देखा जाय तो इन लोगों से ‘हम’ अथवा ‘मैं’ का कोई सम्बन्ध कायम रखने की बात ही नहीं होती क्योंकि ये उपर्युक्त समस्त सम्बन्ध या रिस्ते-नाते शारीरिक मात्र होते हैं और ये जीव के लिये तो ऐसा ‘मीठा जहर’ होते हैं कि न तो इन्हें छोड.ते बनता है और न तो रहते ही बनता है । परन्तु अन्ततः यदि इस ‘मीठे जहर’ रूप मीठे लगाव को समाप्त नहीं किया गया तो व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और आध्यात्मिक आदि समस्याओं में से कुछ को भी किसी अन्य तौर-तरीके से सुलझाया अथवा हल नहीं निकाला जा सकता ।
        जब ‘हम’ अथवा ‘मैं’ ही  शरीर नहीं है तो कोई शरीर ‘हम’ अथवा ‘मैं’ का माता-पिता, भाई-बहन, पुत्र-पुत्री आदि रिस्ते-नाते कैसे हो जायेंगे ? ये सभी सम्बन्धी जन पहले-पहल तो यह बतावें कि ये किसके माता-पिता हैं ? किसके भाई-बहन हैं ? किसके पुत्र-पुत्री आदि हैं ? ‘हम’ या ‘मैं’ के या ‘हम’ या ‘मैं’ से युक्त शरीर के ? तो पता चलेगा कि ‘हम’ अथवा ‘मैं’ को तो ये जानते ही नहीं हैं कि ‘हम’ या ‘मैं’ कौन है, कहाँ से आया है, कहाँ रहता है, इसका नाम क्या है, इसका क्या रूप है और अन्त में इसे जाना कहाँ है-- आदि बातों को जब ये जानते ही नहीं तो ये ‘हम’ या ‘मैं’ के माता-पिता, भाई-बहन, पुत्र-पुत्री आदि कैसे हो सकते हैं ? और जब इनको यह कहा जाये कि ये शरीर के माता-पिता, भाई-बहन, पुत्र-पुत्री आदि हैं तो अभी ‘हम’ या ‘मैं’ इस शरीर को छोड़ दें तो ये लोग जो सबसे बड़े अपना बने हैं, वही सबसे पहले शरीर को आग में, जल में अथवा मिट्टी में डाल कर समाप्त कर देंगे । तो इस प्रकार से ये लोग शरीर के भी अपने नहीं हुये । अर्थात् ‘हम’ और ‘हमार’ दोनों दो बातें हैं । ‘मैं’ और ‘मेरा’ दोनों दो बातें हैं । यदि इन्हें एक ही मान लिया जाये तो इससे बढ़कर जढ़ता और मूढ़ता और क्या होगी ?

 ‘हम’ के पिता-पुत्र या
            माता-पुत्री आदि नहीं हो सकते
‘हम’ शरीर नहीं है, शरीर के अन्दर रहने वाला जीव मात्र है।  समस्त शरीरों से तो एक ही आवाज ‘हम’ या ‘मैं’  निकलती है, चाहे वह शरीर स्त्री हो या पुरुष । प्रत्येक शरीर से जब यह पूछा जाता है कि आप कौन हैं, तो सर्व प्रथम ‘हम’ या ‘मैं’  का उच्चारण होता है  कि ‘हम’ या ‘मैं’ अमुक व्यक्ति है । स्त्री भी अपने को ‘हम’ या ‘मैं’ कहती है और पुरुष भी । पिता भी अपने को ‘हम’ या ‘मैं’ कहते हैं और पुत्र भी । माता भी अपने को ‘हम’ या ‘मैं’ कहती है और पुत्री भी। पति भी अपने को ‘हम’ या ‘मैं’ कहते हैं और पत्नि भी। बूढ़े भी अपने को ‘हम’ या ‘मैं’  कहते हैं और बच्चा-लड़का भी । बुढि़या भी अपने को ‘हम’ या ‘मैं’ कहती है और बच्ची-लड़की भी । लड़का भी अपने को ‘हम’ या ‘मैं’ कहता है और लड़की भी।  भिखारी भी अपने को ‘हम’ या ‘मैं’ कहता है और राजा भी। समस्त शरीरों से ही यही आवाज जो  एकमात्र ‘एक ही’ है, निकलती है । तो देखना यह है कि कौन पिता और कौन माता, कौन पु.त्र और कौन पुत्री, कौन पति और कौन पत्नि है । अर्थात् कोई ‘हम’, ‘हम’ का माता; कोई ‘हम’ ‘हम’ का पिता, कोई ‘हम’ ‘हम’ का पुत्र, कोई ‘हम’, ‘हम’ का माता, कोई ‘हम’ ‘हम’ की पुत्री तथा कोई ‘हम’ या ‘मैं’ का ही सगा-सम्बन्धी आदि कैसे हो सकता है अर्थात् नहीं हो सकता ! यहाँ पर जो बार-बार ‘हम’ या ‘मैं’ सबके साथ उच्चारित किया गया है, वह मात्र यह समझाने के लिए है कि यथार्थतः बात तो यह है कि ‘हम’ या ‘मैं’ दो है ही नहीं ।
 ‘हम और हमार’ -- ‘तू और तोहार’
     सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक बन्धुओं ! आइये अब हम लोग ‘हम और हमार’ तथा ‘तू और तोहार’ विषय पर विचार-मन्थन, ध्यान-साधना और तत्त्वज्ञान- पद्धति आदि के द्वारा जानकारी लिया-दिया और उसे यथार्थतः कार्य रूप में लागू किया जाय ताकि व्यक्ति और समाज आनन्द और शान्ति के साथ जीवन-बशर करते हुए चिदानन्दमय अनुभूति रहते हुए, अन्त में सच्चिदानन्दमय रूप परमशान्ति और परमानन्द में विलय कर जाया जाय । यही मानव जीवन का चरम और परम लक्ष्य है। यही परम शान्ति और परमानन्द है। यही शाश्वतता या अमरता की प्राप्ति है। यही कैवल्य अथवा पद-निर्वाण भी है और यही मुक्ति और मोक्ष भी है ।  ‘‘शब्द-ब्रह्म’’ से उत्पन्न आत्म-ज्योति रूप शिव-शक्ति रूप शब्द-सत्ता ही शरीरों में प्रवेश करके ‘अहम्’ ‘शब्द’ में परिवर्तित होकर ‘हम’-‘हम’ अथवा ‘मैं’- ‘मैं’ और ‘तू’-‘तू’ करते हुए, अज्ञानी रूप में अपने को शरीमय मानते और जढ़ता एवं मूढ़ता के कारण शरीरमय ही रहते हुए, नाना प्रकार के शरीरों के नाना प्रकार के नामों और रूपों में अपने ‘अहम्’ या ‘हम’ या ‘मैं’ को मिलाते हुए, शारीरिक नामों और रूपों को ही अपना नाम और रूप कहने तथा उसी के अनुसार व्यवहार करने लगते हैं जिसके कारण एक ‘अहम्’ दो शब्दों ‘अहम्’ और ‘त्वम्’ अर्थात् हम और तू के माध्यम से उच्चारित होने लगा । जिसमें प्रत्येक शरीर से अपने परिचय में तो ‘अहम्’ या ‘हम’ या ‘मैं’ बताया जाता है परन्तु सामने रहने वाले जिससे बात की जाती है उसको या उसके लिए ‘तुम’ या ‘तू’ शब्द उच्चारित करते हैं । दूसरे शब्दों में -- दूसरे के अपेक्षा अपने परिचय के विषय में किसी को भी अच्छी जानकारी होती है। स्त्री-पुरुष, लड़का-लड़की, बूढ़ा-बच्चा आदि जो भी हैं, पूछे जाने पर प्रत्येक शरीरों से ही अपने परिचय के रूप में ‘हम’ या ‘मैं’ ही आवाज पहले-पहल निकलती है। ‘तुम’ या ‘तू’ आवाज तो हर व्यक्ति ही अपने समक्ष उपस्थित व्यक्ति के लिए निकालता है । ‘तुम’ या ‘तू’ कहलाने वाला व्यक्ति भी अपना परिचय बतलाने में अपने को ‘अहम्’ या ‘हम’ या ‘मैं’ ही बताता है । परन्तु कोई ‘हम’ या ‘मैं’ वाला व्यक्ति कभी भी अपने को ‘तुम’ या ‘तू’ नहीं कहता अर्थात् प्रत्येक ‘तुम’ या ‘तू’ वाला व्यक्ति कभी भी अपने को ‘तुम’ या ‘तू’ नहीं कहता  है । इसका अर्थ यह हुआ कि प्रत्येक ‘तुम’ या ‘तू’ यथार्थतः ‘हम’ या ‘मैं’ ही होता है अर्थात् कोई ‘हम’ या ‘मैं’ अपने द्वारा अपने को ‘तुम’ या ‘तू’ नहीं कह सकता । ‘हम’ या ‘मैं’ तथा ‘तुम’ या ‘तू’ न तो कोई अंग होता है और न शरीर ही। न कोई वस्तु होता है और न कोई स्थान ही। वह (हम और तुम) तो मात्र शब्द-सत्ता रूप में एक ‘अस्तित्त्व’ है । अस्तित्त्व का सीधा सम्बन्ध आत्म-ज्योति रूप शब्द-शक्ति से होता है । दूसरे शब्दों में ‘हम और तुम’ का अस्तित्त्व आत्म-ज्योति रूप शब्द-शक्ति से ही सीधा सम्बन्धित एक उसी का अंशवत् शब्द-सत्ता ही है । ‘हम और तुम’ एक ही ‘हम’ वाले व्यवहार हेतु दो रूप में (डबल रोल में) होता है। यथार्थतः तो
‘हम’ और ‘तुम’ दो होता ही नहीं, मात्र ‘एक’ ही है ।
        ‘हम’ अस्तित्त्व से जिसका सम्बन्ध या लगाव ‘हम’ के लिए होता है, वह व्यक्ति, वस्तु और स्थान ‘हमार’ कहलाता है और ‘तुम’ लाभ के लिए जो होता है, वह तोहार कहलाता है । परन्तु यह ‘हम और हमार’ तथा ‘तू और तोहार’ मात्र एक भ्रम ही है क्योंकि जब ‘तू’ भी  ‘हम’ ही है और ‘हम’ को ही ‘तुम’ भी कहना है तो प्रत्येक ‘तुम’ ‘हम’ और प्रत्येक ‘हम’ ‘तुम’ ही है । तब भेद किस बात का ? अर्थात् कोई भेद नहीं ! तो फिर हमार और तोहार ही कहाँ रहा । कोई हिस्सा बँटवारा नहीं ! जब ‘हमार’ और ‘तोहार’, ‘हम’ और ‘तुम’ से सम्बन्धित होने मात्र से ही होना है और ‘हम’ और ‘तुम’ दो है ही नहीं, एक ही ‘हम’  का मात्र व्यवहार-व्यवस्था हेतु दो रूप है अन्यथा दोनों एक ही है, तो ‘हमार और तोहार’ भी दोनों एक ही ‘हम’ का हुआ जो समस्त शरीरों के भीतर कायम है । अन्ततः हमें यही कहना ही पड़ेगा कि समस्त शरीर ही एकमात्र ‘हम’ या ‘मैं’ द्वारा ही चालित होता है अर्थात् सृष्टि में जितने भी जीव या प्राणी हैं, सब के अन्दर से ही एक मात्र ‘हम’ या ‘मैं’ का ही उच्चारण होता है । ‘तुम’ तो मात्र व्यवहार-व्यवस्था हेतु ही ‘हम’ का ही दूसरा रूप (या डबल रोल) है ।
        चूँकि दो शरीरों को भाव और बोध के अलावा अन्य किसी भी तरीके से ‘एक’ में मिलाया अथवा ‘एक’ बनाया नहीं जा सकता है अर्थात् विचार, भाव और बोधत्त्व ‘एकरूपता’ के सिवाय शारीरिक विलय अथवा ‘एकत्त्व’ रूप एकरूपता का होना सम्भव ही नहीं होता है परन्तु ‘हमार और तोहार’ ‘एकत्त्व’ हुए बिना शान्ति और आनन्द की प्राप्ति की कल्पना ही नहीं की जा सकती है, पाना या मिलना तो दूर है क्योंकि पृथकता और परिवर्तनशीलता शोक और अशान्ति स्वभाव वाला  होता ही है । पृथकता और परिवर्तनशीलता की ताशीर (स्वभाव) कष्ट या शोक और अशान्ति प्रधान तथा स्थिरता और एक रूपता (अपरिवर्तनशीलता) आनन्द और शान्ति स्वभाव (ताशीर) वाला होता है ।

संत ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस